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________________ १२ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ के द्वारा ही होती है। काल को एक ऐसा द्रव्य माना गया है, जिसे न तो हम देख सकते हैं, न उसकी आवाज सुन सकते हैं, न उसका स्पर्श कर सकते हैं, और न उसकी गंध ही प्राप्त कर सकते हैं। इसीलिए प्रत्यक्ष के द्वारा काल के अस्तित्व को कभी अनुभव नहीं किया जा सकता है। इसके लिए अनुमान का ही सहारा लेना पड़ता है। वस्तुओं में जो परिणाम या उसकी अवस्था विशेष में जो परिवर्तन होता है, उसकी व्याख्या के लिए काल को मानना पड़ता है। यह नित्य है, अत: पुद्गल सदा गतिशील रहता है। व्यावहारिक दृष्टिकोण में काल को 'समय' के रूप में जाना जाता है, जिसका विभाजन आधुनिक काल में घंटा, मिनट और सेकेण्ड के रूप में किया गया है। समय निश्चय काल का एक रूप है, परन्तु जीव और पद्गलों की गति के द्वारा अभिव्यक्त होने के कारण 'परिणाम भव' कहलाता है। समय अस्थायी है, अत: इसे काल-अणु भी कहा जाता है। चूंकि काल अणुमात्र प्रदेश को स्पष्ट करता है, अत: इसके काय नहीं होते। काल अण परस्पर नहीं मिलते, यद्यपि ये समस्त लोकाकाश में भरे रहते हैं। निश्चय काल नित्य है और द्रव्यों के परिणाम में सहायक होता है। उपरोक्त गुणों के कारण जैन विचारकों ने काल के दो वर्ग किये हैं- पारमार्थिक या निश्चय काल और व्यावहारिक काल। जहाँ पारमार्थिक काल नित्य तथा निराकार है, वहीं व्यावहारिक काल सांसारिक है और इसका प्रारंभ तथा अन्त होता है।२२ गुणधर्म के आधार पर कुछ जैन दार्शनिकों ने काल को स्वतंत्र द्रव्य न मानकर दूसरे द्रव्यों का ही एक पर्याय माना है। अखण्ड द्रव्य होने के कारण यह अस्तिकाय नहीं है, वरन यह अवयवों के बिना ही समस्त विश्व में व्याप्त रहता है।२३ उपरोक्त सभी द्रव्य अजीव और अचेतन माने गये हैं, अत: इनमें सुख और दु:ख का ज्ञान नहीं होता। पुद्गल को छोड़कर अन्य सभी अस्तिकाय द्रव्य असीमित आकार वाले हैं। पुद्गल में स्वभाव से ही रस, रूप, गंध और स्पर्श का अस्तित्व होता है। काल द्रव्य को अन्य दार्शनिकों ने भी स्वीकार किया है, पर उन्होंने व्यवहार काल को ही काल द्रव्य मान लिया है। काल द्रव्य-अणुरूप वस्तु को केवल जैन शास्त्रों में ही स्वीकार किया गया है। यह काल द्रव्य भी आकाश की तरह ही अमूर्त है। अन्तर केवल इतना है कि आकाश अखण्ड है जबकि काल द्रव्य अनेक हैं।२४ इस प्रकार हम पाते हैं कि जैन दर्शन में अजीव तत्त्व का एक विशेष स्थान है, जो तत्कालीन और आधुनिक कई विचारों से भिन्न है, तथापि इसकी उपयोगिता इसके वैज्ञानिक तथ्यों के कारण अधिक परिलक्षित होती है। सन्दर्भ १. जैकोबी, सैक्रेड बुक्स आफ द ईस्ट, खण्ड २२, पृ०-XL. २. एम० हिरियन्ना, आउटलाइन्स ऑफ इंडियन फिलॉसफी, पृ०- १५८. आकाश का वह हिस्सा, जिसमें एक परमाणु रह सके। ४. तत्त्वार्थसूत्र, विवेचक- पं० सुखलाल संघवी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान,
SR No.525033
Book TitleSramana 1998 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshokkumar Singh, Shivprasad, Shreeprakash Pandey
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1998
Total Pages136
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size10 MB
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