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१२६ श्रमण/जनवरी-मार्च/१९९८ श्री विद्यासागर जी महाराज जैनाचार्यों में मूर्धन्य हैं। वे धर्म और दर्शन के मर्मज्ञ ही नहीं बल्कि प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, मराठी, हिन्दी, अंग्रेजी, बंगला, कन्नड़ आदि भाषाओं के भी अच्छे जानकार हैं। उन्होंने गाथा २ का हिन्दी अनुवाद इस रूप में किया है
सुनो! जीव उपयोग-मयी है, तथा अमूर्तिक कहलाता, स्व-तन-बराबर प्रमाणवाला, कर्ता-भोक्ता है भाता। ऊर्ध्व-गमन का स्वभाव वाला, सिद्ध तथा अविकारी, स्वभाव के वश, विभाव के दश, कसा कर्म से संसारी ।।२।।
इसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति आसानी से जैन दर्शनानुसार जीव की अवधारणा को अच्छी तरह समझ सकता है। अन्य भाषा-भाषियों के लिए भी इस संकलन में ध्यान दिया गया है। अत: यह रचना अनेक दृष्टियों से उपयोगी है। इसकी बाहरी रूपरेखा आकर्षक है तथा छपाई स्पष्ट है। इसके लिए आचार्य श्री के प्रति श्रद्धा भाव तथा संकलन कर्ता और प्रकाशक को बधाई है। आशा है, इस महत्त्वपूर्ण रचना का स्वागत विद्वानों और सामान्य व्यक्तियों के द्वारा होगा।
डॉ० बशिष्ठ नारायण सिन्हा प्रभुता का मार्ग, लेखक- महोपाध्याय ललित प्रभ सागर सम्पादन- श्रीमती लता भंडारी, प्रकाशक- श्री जितयशा फाउंडेशन, सी, एस्प्लानेड रो ईस्ट, कलकत्ता६९, पृ०- ११०.
मनुष्य और पशु दोनों जीव हैं, परन्तु इनमें महान अंतर है। पशु के समक्ष आहार-ग्रहण करना और अपने जीवन की रक्षा करना यही एकमात्र लक्ष्य है। लेकिन मनुष्य स्वयं के जीवन की रक्षा करने के साथ-साथ दूसरों की भी रक्षा करता है। यही मानवता है और मनुष्य की प्रभुता भी। इस प्रभुता को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अनेकविध समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इन पर कैसे विजय प्राप्त किया जाए ताकि व्यक्ति अपनी दिव्यता को पहचान सके, इन्हीं बिन्दुओं पर लेखक ने अपनी इस कृति में विचार किया है। प्राचीन सन्दर्भो को आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करके लेखक ने पाठकों के समक्ष प्रभुता के मार्ग को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है जो सराहनीय है। जिज्ञासु जन इस पुस्तक से लाभान्वित होंगे। मुद्रण सुन्दर एवं स्पष्ट है।
डॉ० रज्जन कुमार साक्षी की आँख लेखक- मुनि श्री चन्द्रप्रभ सागर संपादन- सश्री विजयलक्ष्मी जैन, प्रकाशक-श्री जितयशा फाउंडेशन, सी, एस्प्लानेड रो ईस्ट, कलकत्ता- ६९; पृ०८५; मूल्य- १२ रुपया।