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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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कयवन्नाचौपाई के रचनाकार देवसुन्दरसूरि के गुरु रामकलशसूरि किसके शिष्य थे। अभिलेखीय साक्ष्यों में उल्लिखित सागरचन्द्रसूरि, देवरत्नसूरि आदि से उनका क्या सम्बन्ध था, प्रमाणों के अभाव में यह ज्ञात नहीं होता। ठीक यही बात श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्र की वि.सं. १६०२ में प्रतिलिपि करने वाले जीरापल्लीगच्छीय रंगविजय और उनके गुरु विजयहर्षगणि के बारे में कही जा सकती है, फिर भी उक्त साहित्यिक साक्ष्यों से वि. सम्वत् की १७वीं शताब्दी के प्रथम दशक तक इस गच्छ का स्वतन्त्र अस्तित्त्व सिद्ध होता है। इसके बाद इस गच्छ से सम्बद्ध कोई साक्ष्य न मिलने से यह अनुमान व्यक्त किया जा सकता है कि इस समय तक इस गच्छ के अनुयायी श्रमण किन्ही प्रभावशाली गच्छों विशेषकर तपागच्छ में सम्मिलित हो गये होंगे। यद्यपि त्रिपुटीमहाराज ने वि. सं. १६५१ में इस गच्छ के किन्ही देवानन्दसूरि के पट्टधर सोमसुन्दरसूरि के विद्यमान होने का उल्लेख किया है, परन्तु अपने उक्त कथन का कोई आधार या सन्दर्भ नहीं दिया है, अत: इसे स्वीकार कर पाना कठिन है। सन्दर्भ १. मुनि जिनविजय, संपा. विविधगच्छीयपट्टावलीसंग्रह, सिंघी जैन ग्रन्थमाला,
ग्रन्थांक ५३, बम्बई १९६१ ई. सन्, पृष्ठ ५२-५५। २. मुनि जयन्तविजय, अर्बुदाचलप्रदक्षिणा, यशोविजय जैन ग्रन्थमाला, भावनगर
१९४८ ईस्वी सन्, पृष्ठ ८७-९७ । ३-४. मोहनलाल दलीचन्द देसाई, जैनगूर्जरकविओ, भाग-१, नवीन संस्करण, संपा.
डॉ. जयन्त कोठारी, बम्बई १९८६ ईस्वी सन्, पृष्ठ ३३३ । ५. अमृतलाल मगनलाल शाह, संपा., श्रीप्रशस्तिसंग्रह, अहमदाबाद वि. सं.
१९९३, भाग-२, पृष्ठ ३६६ । ६. त्रिपुटी महाराज, जैन परम्परानो इतिहास, भाग-२, श्री चारित्र स्मारक ग्रन्थमाला,
ग्रन्थांक ५४, अहमदाबाद १९६०ईस्वी सन्, पृष्ठ ५९९ ।
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