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________________ ३२ : श्रमण / जुलाई-सितम्बर/ १९९६ शालिभद्रसूरि [वि. सं. १४४०-१४८३] उदयरत्नसूरि वीरभद्रसूरि [वि. सं. १४६८] [वि.सं. १४८३] सागरचन्द्रसूरि [वि.सं. १५२० १५३२] उदयचन्द्रसूरि [वि.सं. १५०८-१५२७ ] वि.सं. १५५७ के प्रतिमालेख में उल्लिखित प्रतिमाप्रतिष्ठापक उदयचन्द्रसूरि के गुरु आदि का उल्लेख न मिलने से उनके सम्बन्ध में कुछ जान पाना कठिन है । यद्यपि ऊपर तालिका में शीलभद्रसूरि के शिष्य उदयचन्द्रसूरि का नाम आ चुका है किन्तु उक्त उदयचन्द्रसूरि और वि. सं. १५५७ के लेख में उल्लिखित उदयचन्द्रसूरि के बीच समय के अन्तराल को देखते हुए दोनों का एक ही व्यक्ति होना असम्भव तो नहीं पर कठिन अवश्य है। देवरत्नसूरि. [वि.सं. १५४९-१५७२] जैसा कि लेख के प्रारम्भ में कहा जा चुका है इस गच्छ से सम्बद्ध मात्र दो साहित्यिक साक्ष्य मिलते हैं। इनमें से प्रथम है रामकलशसूरि के शिष्य देवसुन्दरसूरि द्वारा रचित कयवन्नाचौपाई। इसकी प्रशस्ति में रचनाकार ने केवल अपने गुरु और रचनाकाल तथा गच्छ आदि का ही उल्लेख किया है, जो इस प्रकार है : Jain Education International संवत पनर चोराण सार, मागसर वदि सातमि गुरुवार । पूष्य नक्षत्र हूंतो सिध जोग, कयवन्नानी कथानो भोग ।। श्रीजीराउलिगच्छ गुरु जयवंत, श्री श्रीरामकलशसूरि गुणवंत । वाचक देवसुन्दर पभणंति, भाइ गुणइ ते सुख लहंति ।। इनके द्वारा रची गई एक अन्य कृति भी मिलती है जिसका नाम है आषाढ़ भूतिसज्झाय' (रचनाकाल वि. सं. १५८७) । वि. सं. १६०२ में लिखी गयी तपागच्छीयश्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति की प्रतिलिपि की प्रशस्ति' में भी इस गच्छ का उल्लेख है: इत श्री तपग. श्राद्ध प्रतिक्रमण.. .. वृत्तौ शेषाधिकार : पंचमः । समाप्ता चेयमर्थदीपिकानाम्नो श्राद्धप्रतिक्रमण टीका । ग्रन्थाग्रन्थ ६६४४ ।। श्री सं. १६०२ श्रावण सुदि ५ रवौ श्रीजीराउलगच्छे लिखितं कीकी जाउरनगरे श्रीविजयहर्षगणि शिष्य रंगविजयनी प्रति भंडारी मूकी ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525027
Book TitleSramana 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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