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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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जैसा की पीछे हम देख चुके हैं वि.सं. १४०६ के प्रतिमालेख में प्रतिमा-प्रतिष्ठापक के रूप में रामचन्द्रसूरि का तो उल्लेख है, परन्तु उनके गुरु आदि का नाम उक्त लेख से ज्ञात नहीं होता, वहीं दूसरी ओर वि.सं. १४११ और वि.सं. १४१३ के अभिलेखों से स्पष्ट रूप से उनके गुरु और प्रगुरु तथा उनके गच्छ का भी नाम मालूम हो जाता है। चूँकि ये इस गच्छ [जीरापल्लीगच्छ] से सम्बद्ध प्राचीनतम साक्ष्य हैं अत: यह माना जा सकता है कि रामचन्द्रसूरि के समय से ही बडगच्छ की एक शाखा के रूप में जीरापल्लीगच्छ के अस्तित्त्व में आने की नींव पड़ चुकी थी और शीघ्र ही यह एक स्वतन्त्र गच्छ के रूप में स्थापित हो गया। इस आधार पर रामचन्द्रसूरि को इस गच्छ का पुरातन आचार्य माना जा सकता है। अभिलेखीय साक्ष्यों से रामचन्द्रसूरि के अतिरिक्त वीरसिंहसूरि, वीरचन्द्रसूरि, शीलभद्रसूरि, वीरभद्रसूरि, उदयरत्नसूरि, उदयचन्द्रसूरि, सागरचन्द्रसूरि, देवरत्नसूरि आदि के नामों के साथ-साथ उनके पूर्वापर सम्बन्धों का भी उल्लेख मिल जाता है, जो इस प्रकार है: १. वीरसिंहसूरि के पट्टधर वीरचन्द्रसूरि [वि.सं. १४२९-३८]
वीरचन्द्रसूरि के पट्टधर शालिभद्रसूरि [वि. सं. १४४०-८३] ३. शालिभद्रसूरि के प्रथम शिष्य वीरभद्रसूरि [वि. सं. १४६८] ४. शालिभद्रसूरि के द्वितीय शिष्य उदयरत्नसूरि [वि. सं. १४८३]
शालिभद्रसूरि के तृतीय शिष्य उदयचन्द्रसूरि [वि. सं. १५०८-२७]
उदयचन्द्रसूरि के प्रथम शिष्य सागरचन्द्रसूरि [वि. सं. १५२०-१५३२] ७. उदयचन्द्रसूरि के द्वितीय शिष्य देवरत्नसूरि [वि. सं. १५४९-१५७२]
उक्त आधार पर जीरापल्लीगच्छ के मुनिजनों के गुरु-शिष्य परम्परा की एक तालिका पुनर्गठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है:
वडगच्छीय देवचन्द्रसूरि
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जिनचन्द्रसूरि रामचन्द्रसूरि [वि. सं. १४११ और १४१३ में जीरापल्ली
तीर्थ पर दो देवकुलिकाओं के निर्माता]
वीरसिंहसूरि
वीरचन्द्रसूरि [वि. सं. १४२९-१४३८]
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