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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
दीक्षाकल्याणक मनाया। उसी समय से इस स्थान का नाम प्रयाग हो गया। आचार्य जिनसेन विरचित हरिवशंपुराण से ज्ञात होता है कि भगवान् ने दीक्षा-स्थल पर अपनी प्रजा को समझाया कि तुम लोगों की रक्षा के लिए मैंने चतुर भरत को नियुक्त कर दिया है, तुम उसकी सेवा करो। प्रजा ने उनकी आज्ञा स्वीकार कर जिस स्थान पर प्रजापति ऋषभदेव की विदाई सम्बन्धी पूजा की, वह स्थान पूजा के कारण 'प्रजाग' (प्रयाग) कहा जाने लगा। आचार्य रविषेण ने इस विषय में दो मत प्रस्तुत किए हैं- प्रथम मतानुसार भगवान् ऋषभदेव प्रजा से दूर होकर उस स्थान पर गये थे, इसलिए उस स्थान का नाम प्रजाग हो गया। द्वितीय विचार के अनुसार भगवान् ने उस स्थान पर प्रकृष्ट त्याग किया था, इसलिए वह स्थान प्रयाग नाम से प्रसिद्ध हो गया।३
इस प्रकार स्पष्ट है कि पहले तो सिद्धार्थवन का नाम प्रयाग हआ और बाद में पुरिमताल नगर भी प्रयाग कहा जाने लगा। इसीलिए परवर्ती साहित्य में कहीं भी पुरिमतालनगर का नामोल्लेख नहीं मिलता है। अक्षयवट
दीक्षा ग्रहण करने के बाद भगवान् छ: मास पर्यन्त उसी वन में कायोत्सर्गयोग से स्थिर रहे, फिर विभिन्न देशों का विहार करने चले गये। ठीक एक सहस्र वर्षों के बाद वे पुन: पुरिमतालनगर में आये और शकटवन में एक वटवृक्ष के नीचे पर्यंकासन में विराजमान हो गये। उन्होंने ध्यानाग्नि के द्वारा अपने समस्त. घातिया कर्मों का नाश कर फाल्गुन कृष्णा एकादशी को उत्तराषाढ़रनक्षत्र में निर्मल केवलज्ञान प्राप्त किया। इन्द्रादि देवों ने समवशरण की रचना की और प्रभुवर ने प्रथम धर्मोपदेश व धर्मचक्रप्रवर्तन यहीं पर किया। इसे सुनकर पुरिमतालनरेश वृषभसेन भी अनेक राजाओं के साथ आया और दीक्षा लेकर भगवान् का प्रथम गणधर बना। यहाँ जिस वटवृक्ष के नीचे भगवान् को अक्षय ज्ञान-लक्ष्मी की प्राप्ति हुई, वही वटवृक्ष ‘अक्षयवट' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। जैन तीर्थक्षेत्रों में अक्षयवट की विशिष्ट महिमा है। नन्दिसंघ की गुर्वावली में इसको सम्मेदशिखर, चम्पापुरी आदि तीर्थों के समकक्ष बताया गया है। विविधतीर्थकल्प से ज्ञात होता है कि मुस्लिम शासकों ने अक्षयवट को कई बार कटवाया किन्तु वह बार-बार पल्लवित-पुष्पित होता रहा। आज भी यह भगवान् के प्रकृष्ट त्याग एवं कठोर साधना का मौन साक्षी बना इलाहाबाद किले में स्थित है। इसके दर्शन मात्र से भक्त का मन प्रभुवर की भक्ति में डूब जाता है और अक्षय पुण्य का भागी बनता है। प्राचीन तीर्थमाला संग्रह के अनुसार पहले यहाँ ऋषभदेव के चरण विराजमान थे, जिसे सोलहवीं शताब्दी में राय कल्याण नामक सूबेदार ने हटवाकर शिवलिङ्ग की स्थापना करवा दी।
इन प्रमाणों से स्पष्ट है कि जैन धर्म के इतिहास में प्रयाग का नाम सर्वथा अग्रगण्य है। भगवान् ऋषभदेव का जन्म भले ही अयोध्या में हुआ हो किन्तु जैन धर्म की जन्मभूमि
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