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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६
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तो प्रयाग ही मानी जायेगी। यहीं पर भगवान् ने दीक्षा ली और केवलज्ञान प्राप्त किया। अपना प्रथम धर्मोपदेश एवं धर्मचक्रप्रवर्तन भी यहीं पर किया। इस प्रकार जैनधर्म के सिद्धान्तों एवं उपदेशों का प्रथम प्राकट्य इसी पावन भूमि पर हुआ था। वृषभसेन आदि राजाओं के दीक्षित होने के आधार पर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि अत्यन्त प्राचीन काल में ही प्रयाग जनपद में जैन धर्म का प्रचार-प्रसार आरम्भ हो गया था। प्रयाग-स्तम्भ
इलाहाबाद किले के अन्दर एक विशाल प्रस्तर स्तम्भ खड़ा है, जिसे प्रयाग -स्तम्भ कहा जाता है। यह ३५ फुट ऊँचा और ४९३ मन भारी है इसमें प्रियदर्शी (अशोक), समुद्रगुप्त, जहाँगीर आदि सम्राटों के धर्मादेश, विजय-यात्राएँ एवं राज्याभिषेक-विवरण अंकित हैं। कहा जाता है कि इसे २३२-३५ ई० पू० में सम्राट अशोक ने अपनी उपराजधानी 'कौशाम्बी' में स्थापित कराया था, जिसे बादशाह फिरोजशाह ने उठवाकर संगम तट पर रखवा दिया। परन्तु जैन विद्वान् इसको अशोक-निर्मित नहीं मानते। उनका विचार है कि इसका निर्माण अशोक के पौत्र सम्प्रति ने कराया था। सम्प्रति जैनधर्म का प्रबल अनुयायी एवं प्रचारक था। उसने तीर्थंकरों की कल्याणक-भूमियों पर स्तम्भ, स्तूप आदि बनवाकर उस पर जैनधर्म की उदार शिक्षायें एवं धर्माज्ञाएँ अंकित करायी थीं। परन्तु कहीं भी अपना पूरा नाम न देकर केवल 'प्रियदर्शिन्' ही उल्लेखित कराया था। मौनी अमावस्या
जैन अनुश्रुतियों के अनुसार भगवान् ऋषभदेव ने कैलाश पर्वत पर जब माघ कृष्णा चतुर्दशी को निर्वाण प्राप्त किया, तब पुरिमतालनगर के निवासियों ने अमावस्या को संगम तट पर उस मौनी साधु का मोक्ष कल्याणक मनाया। इसी समय से माघी अमावस्या को मौनी अमावस्या कहा जाने लगा और उस पुनीत पर्व पर वहाँ स्नानादि का आयोजन होने लगा। अन्निकापुत्र का निर्वाण __' कल्याणक तीर्थक्षेत्र होने के कारण प्रयाग में जैनधर्मानुयायी, भक्तों, प्रचारकों, विद्वानों एवं मुनियों का आवागमन प्रायः होता रहता था। विविधतीर्थकल्प नामक ग्रन्थ में यहाँ आने एवं रहने वाले कतिपय जैनाचार्यों के उल्लेख विद्यमान हैं। उक्त ग्रन्थ के अनुसार एकदा आचार्य अनिकापुत्र को कुछ आतताइयों ने संगम की धारा में फेंक दिया। तभी श्रेणी-आरोहण करके उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और अन्तकृत् केवली होकर मुक्ति-लाभ किया।
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