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________________ श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ : ११ वासनाओं से मुक्त होता है। मात्र बीजरूप में माया और लोभ ही शेष रहते हैं। इस अवस्था में साधक अपूर्वकरण के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की कालस्थिति एवं तीव्रता को कम करता है तथा कर्मवर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है जिसके फलस्वरूप उनका समय के पूर्व ही फलोपभोग किया जा सके। वह अशुभकर्म प्रकृतियों को शुभफल प्रदायक कर्म प्रकृतियों में परिवर्तित कर देता है एवं उनका मात्र अल्पकालीन बन्ध करता है। इस प्रक्रिया को जैन पारिभाषिक शब्दों में १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुणसंक्रमण और ५. अपूर्वस्थिति बन्ध कहा जाता है और यह प्रक्रिया अपूर्वकरण है। ९.अनिवृत्तिकरण-जब साधक कषायों में केवल बीजरूप सूक्ष्म लोभ (संज्वलन) को छोड़कर सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है तथा उसके कामवासनात्मक भाव, जिन्हें 'वेद' कहते हैं, समूलरूपेण नष्ट हो जाते हैं, तब आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था प्राप्त होती है। १०. सूक्ष्म सम्पराय-इस अवस्था में साधक कषायों के कारणभूत हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा इन छ: भावों को भी नष्ट (क्षय) अथवा दमित (उपशान्त) कर देता है और उसमें मात्र सूक्ष्म लोभ शेष रह जाता है। इस गुणस्थान को सूक्ष्मसम्पराय इसलिए कहा जाता है कि इसमें आध्यात्मिक पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ ही शेष रहता है। ११. उपशान्त-मोह-गुणस्थान-जब अध्यात्म मार्ग का साधक १०वें गुणस्थान में रहे हए सूक्ष्म लोभ को भी उपशान्त कर देता है तो वह इस विकास श्रेणी में पहुँचता है। विकास की इस श्रेणी में मात्र वे ही आत्मायें आती हैं जो वासनाओं का दमन या उपशम श्रेणी से विकास करती हैं। जो क्षायिक श्रेणी से विकास करती हैं, वे सीधे बारहवें गुणस्थान में जाती हैं। यह आत्मोत्कर्ष की वह अवस्था है जिसमें से उपशम या निरोधमार्ग का साधक स्वल्पकाल (४८) मिनट) तक इस श्रेणी में रहकर निरुद्ध वासनाओं एवं कषायों के पुन: प्रकटन के फलस्वरूप नीचे गिर जाता है। अत: यह गुणस्थान पुन: पतन का है। १२. क्षीणमोह गुणस्थान-इस अवस्था में आने वाला साधक मोहकर्म की २८ प्रकृतियों को समूल नष्ट कर देता है और इसीकारण इस गुणस्थान को क्षीणमोह गुणस्थान . कहते हैं। इस अवस्था में साधक क्षायिक विधि से विकास कर पहँचता है और इसीलिए १०वें गुणस्थान से भी वह सीधे इस गुणस्थान में आ सकता है। यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है। नैतिक पूर्णता की इस अवस्था को यथाख्यातचारित्र कहते हैं। इस गुणस्थान का काल एक अन्तर्मुहूर्त है। तत्पश्चात् साधक ज्ञानावरण-दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीनों कर्मों के आवरणों को नष्ट कर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य से युक्त हो विकास की अग्रिम श्रेणी में चले जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525027
Book TitleSramana 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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