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________________ १० : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९६ ४. अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-यह आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है जिसमें साधक को यथार्थता का बोध हो जाने पर भी वह पूर्व संस्कारों के कारण आत्म संयम में अवस्थित नहीं हो पाता। उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् होने पर भी आचारणात्मक पक्ष असम्यक् होता है। अविरत सम्यग्दृष्टि आत्मा को निम्न सात कर्मप्रकृतियों का क्षय करना पड़ता है- अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ, मोह, मिश्रमोह एवं सम्यक्त्वमोह। इन कर्म प्रकृतियों को नष्ट कर इस अवस्था को प्राप्त साधक का यदि सम्यक्त्व क्षायिक है तो वह विकास करता हुआ परमात्मा स्वरूप को पा लेता है, किन्तु यदि औपशमिक है तो आत्मा अन्तर्मुहूर्त के अन्दर पुनः प्रकटित वासनाओं के कारण अयथार्थता को प्राप्त हो जाता है। ५. देशविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान-यह आध्यात्मिक विकास की तो पांचवीं पर नैतिक आचरण की दृष्टि से विकास का प्रथम स्तर है। देश विरति का अर्थ हैवासनामय जीवन से आंशिक रूप में निर्वृत्ति। इस गुणस्थान में अवस्थित साधक, साधना पथ से विचलित तो होता है लेकिन उसमें संभलने की क्षमता भी होती है। प्रमाद के वशीभूत होने पर इस क्षमता का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण साधक अपने स्थान से गिर भी सकता है। ऐसे साधक के लिए मानसिक विकृति का परिशोधन तथा विशुद्धिकरण आवश्यक है। ६. प्रमत्त सर्वविरति सम्यग्दृष्टि गुणस्थान- या प्रमत्त संयत गुणस्थानसर्वविरति का अर्थ है-- अशुभाचरण अथवा अनैतिक आचरण से पूर्णरूपेण विरत हो जाना। इस प्रकार यह गुणस्थान अशुभाचरण से अधिकांश रूप से विरति है। इस अवस्था में आचरणशुद्धि तो हो जाती है लेकिन विचार (भाव) शुद्धि का प्रयास चलता रहता है। इस गुणस्थानवर्ती साधक छठे और सातवें गुणस्थान के मध्य परिभ्रमण करते रहते हैं। जब वे अपने लक्ष्य के प्रति जागरुकता नहीं रख पाते तो इस गुणस्थान में आ जाते हैं पुन: लक्ष्य के प्रति जागरूक बनकर सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं। ७. अप्रमत्त संयत गुणस्थान-यह पूर्ण सजगता की स्थिति है। इसमें साधक देह में रहते हुए भी देहातीत भाव से युक्त हो आत्मस्वरूप में रमण करता हैं। कोई भी सामान्य साधक ४८ मिनट से अधिक देहातीतभाव में नहीं रह पाता, दैहिक उपाधियाँ उसे विचलित कर देती हैं, अत: गुणस्थान में अल्पकालिक निवास के बाद साधक विकास की अग्रिम श्रेणी की ओर प्रस्थान कर जाता है और देहभाव की जागृति होने पर लौटकर छठे स्थान में आ जाता है। ८. अपूर्वकरण या निवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान-यह आध्यात्मिक साधना की एक विशिष्ट अवस्था है। इस अवस्था में कर्मावरण के काफी हल्का हो जाने के कारण आत्मा एक अपूर्व आनन्द की अनुभूति करती है। इस अवस्था में साधक अधिकांश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525027
Book TitleSramana 1996 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1996
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size6 MB
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