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८२ : श्रमण जुलाई-सितम्बर/१९९५
मानती है। द्रौपदी में सामान्य स्त्रीसुलभ चपलता, उत्कण्ठा आदि गुण भी दृष्टिगत होते हैं, वह केश-सज्जा, गृहकला एवं ललितकलाओं में निपुण है। (ज) जैन परम्परा में द्रौपदी चरित
जैन परम्परा में द्रौपदी के चरित का परीक्षण करने से यह स्पष्ट है कि वहाँ द्रौपदी का चरित उतना उदात्त रूप में वर्णित नहीं है, जितना कि वैदिक परम्परा में। जैन परम्परा में द्रौपदी का जीवन उसके पूर्वभवों का ही परिणाम है, जिसमें जैन-सिद्धान्तों एवं नियमों के पालन की दृढ़ता एवं उससे भ्रष्ट होने वाले की दुर्दशा चित्रित है। नागश्री द्वारा हुई जीव हिंसा के फलस्वरूप वह नाना योनियों में भटकते हुए विविध कष्टों को झेलती है। बार-बार जन्म-मृत्यु का कष्ट भोगते हुए पुनः कटुस्पर्श वाली मानुषी का जन्म प्राप्त करती है, किन्तु वहाँ भी साध्वी रूप में शिथिलाचरण के फलस्वरूप अगले जन्म में (द्रौपदी जन्म) पाँच पति प्राप्त करती है। इस प्रकार वैदिक परम्परा की मान्यता के विपरीत यहाँ पाँच पतियों की प्राप्ति उसके पाप का परिणाम है। पद्मनाभ द्वारा उसका हरण भी नारद का सत्कार न करने के फलस्वरूप ही होता है और परस्त्रीहरणरूपी पापकर्म करने वाले पद्मनाभ की मृत्यु होती है।
इस प्रकार महाभारत की द्रौपदी और जैन-परम्परा में वर्णित द्रौपदी की कथा में समता के साथ-साथ विषमताएँ भी विद्यमान हैं। उक्त दोनों परम्पराओं में वर्णित द्रौपदी चरित का एक तुलनात्मक अध्ययन - इस शोध प्रबन्ध के माध्यम से प्रस्तुत करना मेरा उद्देश्य है, जो मेरी जानकारी में कहीं नहीं है। प्रस्तुति की सुविधा की दृष्टि से इस शोध ग्रन्थ को मैंने निम्नलिखित अध्यायों में विभक्त किया है -
प्रथम परिच्छेद - “विषयप्रवेश" में सर्वप्रथम भूमिका तत्पश्चात् वैदिक एवं जैन परम्पराओं में द्रौपदी कथा के उद्भव एवं विकास का उल्लेख है।
द्वितीय परिच्छेद – "द्रौपदी कथाविषयक स्रोत" के अन्तर्गत महाभारत एवं द्रौपदीविषयक अन्य कृतियों का परिचय एवं उनमें प्रतिपादित द्रौपदी कथा तथा द्रौपदी-विषयक जैन कृतियों का परिचय एवं उनमें प्रतिपादित द्रौपदी कथा का वर्णन है। .. तृतीय अनुच्छेद --- “वैदिक एवं जैन परम्परागत द्रौपदी कथा का साम्य एवं वैषम्य" दिखलाते हुए तुलना की गयी है। इस अध्याय में जैन साहित्य के ग्रन्थों में भी परस्पर क्या अन्तर है, इसका भी उल्लेख किया गया है।
चतुर्थ परिच्छेद में “वैदिक परम्परा एवं जैन परम्परा में द्रौपदी चरित का मूल्यांकन और अन्तिम परिच्छेद "उपसंहार" के रूप में वर्णित किया गया है।
इसके अनन्तर सन्दर्भ-ग्रन्थों की सूची संलग्न है।
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