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५६ : श्रमण जुलाई-सितम्बर/१९९५
इस गच्छ के प्रमुख ग्रन्थकारों का विवरण निम्नानुसार है : गुणपाल
। जैसा कि इसी निबन्ध के प्रारम्भिक पृष्ठों में हम देख चुके हैं ये वीरभद्रसूरि के प्रशिष्य और प्रद्युम्नसूरि 'द्वितीय' के शिष्य थे। इनके द्वारा रची गयी दो कृतियाँ मिलती हैं – जंबूचरियं और रिसिदत्ताचरिय, जो प्राकृत भाषा में हैं | जंबूचरियं में १६ उद्देश्य हैं। इसकी शैली पर हरिभद्रसूरि के समराइच्चकहा
और उद्योतनसूरि के कुवलयमालाकहा ( शक सं० ७००/ई० सन् ७७८) का प्रभाव बतलाया जाता है | इस ग्रन्थ में भगवान महावीर के शिष्य जम्बूस्वामी का जीवनचरित्र वर्णित है। जम्बूस्वामी पर रची गयी कृतियों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। रिसिदत्ताचरिय की वर्तमान में दो प्रतियाँ मिलती हैं, एक पूना स्थित भण्डारकर प्राच्य विद्या संस्थान में और दूसरी जैसलमेर के ग्रन्थ भंडार५४ में संरक्षित है, ऐसा मुनि जिनविजय जी ने उल्लेख किया है। शाम्बमुनि
इन्होंने चन्द्रकुल के जम्बूनाग द्वारा रचित जिनशतक पर वि० सं० १०२५/ई० सन् ६६६ में पंजिका की रचना की५ | इनके गुरु-शिष्य परम्परा तथा उक्त कृति के अतिरिक्त किसी अन्य रचना के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती। विजयसेनसूरि
मध्ययुग में नागेन्द्रगच्छ की प्रथम शाखा के आदिम आचार्य महेन्द्रसूरि की परम्परा में हुए हरिभद्रसूरि के शिष्य विजयसेनसूरि महामात्य वस्तुपाल के पितृपक्ष के कुलगुरु और प्रभावक जैनाचार्य थे। इन्हीं के उपदेश से वस्तुपाल
और उसके भ्राता तेजपाल ने संघ यात्रायें की और नूतन जिनालयों के निर्माण के साथ साथ कुछ प्राचीन जिनालयों का जीर्णोद्धार भी कराया। वस्तुपाल द्वारा निर्मित उपलब्ध सभी जिनालयों में इन्हीं के करकमलों से जिन प्रतिमायें प्रतिष्ठापित की गयीं।
विजयसेनसूरि अपने समय के उद्भट विद्वान् थे । इनके द्वारा रचित रैवंतगिरिरास६ नामक एकमात्र कृति मिलती है जो अपभ्रंश भाषा में है। यह वस्तुपाल की गिरनार यात्रा के समय रची गयी। इन्होंने चन्द्रगच्छीय आचार्य बालचन्द्रसूरि द्वारा रचित विवेकमंजरीवृत्ति ( रचनाकाल वि० सं० की तेरहवीं शती का अंतिम चरण ) का संशोधन किया ।५७ इसी गच्छ के प्रद्युम्नसूरि (समरादित्यसंक्षेप के रचनाकार ) ने इनके पास न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था।
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