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२६ : श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९५
वासुपूज्यचरित की प्रशस्ति में ग्रन्थकार ने अपनी गुर्वावली के साथ-साथ अपने एक शिष्य उदयप्रभसूरि का भी नाम दिया है ।३६ वि० सं० १३३०/ई० सन् १२७४ के गिरनार के लेख में भी किन्हीं उदयप्रभसूरि का नाम मिलता है।३७ यद्यपि इस लेख में उक्त सूरि के गच्छ, गुरु आदि के नाम का उल्लेख नहीं है. किन्तु इस काल में नागेन्द्रगच्छ को छोड़कर किसी अन्य गच्छ में उक्त नाम के कोई अन्य मुनि नहीं हुए हैं। अतः इन्हें समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर नागेन्द्रगच्छीय वर्धमानसूरि के शिष्य उदयप्रभसूरि से अभिन्न माना जा सकता
इसी प्रकार वि० सं० १३३८/ई० सन् १२८२ में प्रतिष्ठापित और वर्तमान में मनमोहन पार्श्वनाथ जिनालय, बड़ोदरा में संरक्षित धातु की एक चौबीसी जिन-प्रतिमा पर उत्कीर्ण लेख में उल्लिखित प्रतिमा प्रतिष्ठापक नागेन्द्रगच्छीय महेन्द्रसूरि के गुरु उदयप्रभसूरि समसामयिकता और नामसाम्य के आधार पर पूर्वोक्त वर्धमानसूरि के शिष्य उदयप्रभसूरि से अभिन्न माने जा सकते हैं। स्यादवादमंजरी ( रचनाकाल वि० सं० १३४८/ई० सन् १२६२ ) के कर्ता मल्लिषेणसूरि ने भी अपने गुरु का नाम नागेन्द्रगच्छीय उदयप्रभसूरि बतलाया है जिन्हें प्रायः सभी विद्वान् वस्तुपाल-तेजपाल के गुरु विजयसेनसूरि के शिष्य उदयप्रभसूरि से अभिन्न मानते हैं४१ किन्तु प्राध्यापक ढांकी ने सटीक प्रमाणों के आधार पर मल्लिषेणसरि को वर्धमानसूरि के शिष्य उदयप्रभसूरि से भिन्न सिद्ध किया है।४२ इस प्रकार उक्त उदयप्रभसूरि के दो शिष्यों का भी पता चलता है। साहित्यिक और अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर नागेन्द्रगच्छ के इस शाखा की गुरु-शिष्य परम्परा की एक तालिका संगठित की जा सकती है, जो इस प्रकार है -
वीरसूरि
वर्धमानसूरि (प्रथम)
रामसूरि
चन्द्रसूरि
देवसूरि
अभयदेवसूरि
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