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श्रमण/जुलाई-सितम्बर/१९९५
उत्तरा कहती है
भक्तामर का भक्त कहता है
प्रलय तूफान से बचा सकता है।
पाहि पाहि महायोगिन्देवदेव जगत्पतेः । नान्यं त्वदभयं पश्ये यत्र मृत्युः परस्परम् ।। हे प्रभु! आपका नामकीर्तन ही इस
८. प्रकाश स्वरूप
भक्तामर का स्तव्य प्रकाश का पुंज है। वैसा दीप
है जिसके सामने चन्द्र-सूर्य भी हस्व हो जाते हैं। वह सूर्यातिशायी महिमायुक्त है
कल्पान्तकाल - पवनोद्धव-वहिनकल्पम्
दावानलं ज्वलितमुज्ज्वलमुत्स्फुलिंगम् । विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तम्, त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम्" ।।
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सूर्यातिशायि महिमासि मुनीन्द्र ! लोके ।।
वह अपूर्वचन्द्र बिम्ब एवं तमोविनाशक है। वह प्रकाशस्वरूप एवं निर्धूमदीप हैं।
६. विभूति - इस स्तोत्र में प्रभु की विभूतियों का विस्तृत वर्णन उपलब्ध होता है। अपूर्वलावण्य युक्त शरीर-२८, प्रकाशपूर्ण रत्ननिर्मित सिंहासनासीन-२६, श्वेतचँवर - ३०, छत्र - ३१, दिगन्तव्यापीयश- ३२, मनोहारिणी वाणी - ३३, प्रभामण्डल३४, दिव्यवाणी - ३५, आदि का सुन्दर चित्रण उपन्यस्त है।
३. स्तुति के तत्व
इस प्रकार भक्तामर का स्तव्य विभिन्न गुण मणियों से परिपूर्ण है। ज्ञान शक्तियों के सर्वदा प्रबुद्ध रहने के कारण वह बुद्ध, तीनों लोकों का कल्याणकारक होने से शंकर, सम्यक् ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप कल्याणमार्ग के उपदेष्टा होने से धाता और सभी पुरुषों में उत्तम होने से पुरुषोत्तम अर्थात् विष्णु भी है बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित ! बुद्धिबोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धाताऽसि धीर ! शिवमार्गविधेर्विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् ! पुरुषोत्तमोऽसि ।। अव्यय, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, अनन्त, योगीश्वर, अनेकमेक, अमल आदि सार्थक अभिधानों से विभूषित है
त्वामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाद्यं, ब्रह्माणमीश्वरमनन्तमनंगकेतुम् ।
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योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं
ज्ञानस्वरूपमलं प्रवदन्ति सन्तः " ।।
भक्तामर स्तोत्र के विलोडन से अग्रलिखित तत्त्वों पर प्रकाश पड़ता है
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