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भक्तामरस्तोत्र : एक अध्ययन : ११
वक्त्रं क्व ते सुर-नरोरग-नेत्रहारि
निःशेष-निर्जित-जगत्रितयोपमानम् । बिम्बं कलंक-मलिनं क्व निशाकरस्य,
यद्वासरे भवति पाण्डुपलाशकल्पम् ।। विवेच्य स्तोत्र के स्तव्य की महनीयता की अनुगूंज सम्पूर्ण स्तोत्र में सुनाई पड़ती है -
नात्यद्भूतं भुवन-भूषण ! भूतनाथ !
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः। तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा
__भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ।। ४. परीषहजयी -- संसार के दुःख से भक्तों को वही निजात दिला सकता है, जो दुःख-समुद्र में मेरु पर्वत की तरह अविचल एवं उन्नत रह सके। भगवान ऋषभ का चरित्र एक वीर परीषह-जेता के रूप में भी रूपायित हुआ है
चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशांगनाभिः
नीतं मनागपि मनो न विकारमार्गम्। कल्पान्त-काल-मरुता चलिताचलेन
किं मन्दराद्रिशिखरं चलितं कदाचित् ? ५. जगदीश्वर - वह जगत् का स्वामी, नाथ एवं सम्राट होता है। भक्तामर में अनेक स्थलों पर प्रभु के इस रूप का चित्रण हुआ है। वह एकमात्र जगन्नाथ और जगत् का स्वामी है -
ये संश्रितास्त्रिगदीश्वर ! नाथमेकं ... | 'नाथ' विशेषण अनेक बार प्रयुक्त हुआ है |
६. भक्तोद्धारक - स्तव्य के आर्तिहर, शरण्यगतरक्षक, तापत्रयविनाशक पापभंजक आदि रूप भक्तामर में अधिक कमनीय बन पड़ते हैं। वह सम्पूर्ण लोकों का दुःखविनाशक है -
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ! |
तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधिशोषणाय।। ४१-४८ श्लोक भी इस रूप के प्रकाशन में प्रमाण हैं।
७. मृत्यु जेता - मृत्यु की भयंकरता से वही ऊपर उठा सकता है जो स्वयमेव उससे उपरत हो चुका है। वही परम पुरूष अनन्यतम शिवपन्थ होता है। मृत्युकाल का एकमात्र शरण्य होता है। मृत्यु संकट जब सामने हो तो उसको छोड़कर कौन बचा सकता है ?
अर्जुन के शब्द - त्वामेको दह्यमानामपवर्गोऽसि संसृते:२२ ।।
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