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________________ भक्तामरस्तोत्र : एक अध्ययन : १३ १. आत्मप्रकाशन – प्रभु गुणों की भव्यता एवं विराटता के सामने भक्त इतना भावित हो जाता है कि अपने अन्तस्थल को खोलकर, अपनी नीचता, कुरूपता को लेकर प्रभु (अपने प्रिय) के सामने खड़ा हो जाता है। उसके पास अपने सर्जनहार से छिपाने के लिए कुछ भी अवशिष्ट नहीं रह जाता है। जब मर्म का पूर्णतया उद्घाटन हो जाता है तभी उस समर्थ से सम्पर्क होता है। भागवत के गजेन्द्र और मानतुंगाचार्य में काफी समानता है। हो क्यों नहीं? भक्ति की सीमा में जाकर सम्पूर्ण धाराएँ एक ही हो जाती हैं। गजेन्द्र कहता है - जिसे बड़े-बड़े लोग नहीं जान सके, उसको मैं क्षुद्र जीव कैसे जान सकता हूँ - न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुः जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम्।। भक्त मानतुंग अपनी असमर्थता को प्रभु को बता देता है – हे प्रभु ! अब तुम्हीं मेरा बेड़ा पार कर सकते हो। हम तो अल्पसत्त्व असमर्थ जीव हैं। स्तव करने का सामर्थ्य मुझमें कहाँ ? २. माहात्म्य ज्ञान -- भक्त या स्तोता को अपने उपास्य की महनीयता का ज्ञान हमेशा बना रहता है। गोपियों को यह ज्ञान है कि उसका प्रभु केवल नन्दलाल नहीं बल्कि सम्पूर्ण गुणों का स्वामी है - व्यक्तं भवान् ब्रजमयार्तिहरोऽभिजातो देवो यथाऽऽदिपुरुषः सुरलोकगोप्ता ।। विवेच्य स्तुति-काव्य में भक्त को यह अखण्ड विश्वास है कि उसका उपास्य कोई सामान्य नहीं, बल्कि वह त्रैलोक्यपूज्य, त्रिभुवनार्तिहर, विश्वगोप्ता, अव्यय एवं अनन्तस्वरूप है। विपत्तिकाल में वह एकमात्र समर्थ शरण्य है। ३. आश्चर्य से स्थैर्य की यात्रा – भगवद्विभूतियों का दर्शन स्तुतिकाल में ही होता है। जो कभी देखा न गया उसको देखकर आश्चर्य तो होना ही है, लेकिन धीरे-धीरे प्रभु-पाद-पद्मों में वह भक्त रमण करने लगता है। भक्तामरकार की यात्रा भी इसी धरातल पर प्रारम्भ होती है। ४. अन्धकार से प्रकाशलोक में - स्तुतिकाल की यात्रा घने अन्धकार लोक से प्रारम्भ होती है, जहाँ कोई प्रकाशपुञ्ज दिखाई नहीं पड़ता, लेकिन भक्त धीरे-धीरे अपने प्रभु के सम्बल पर वहाँ पहुँच जाता है, जहाँ केवल प्रकाश ही शेष रहता है, वहाँ उसके उपास्य का प्रकाश ही जगमगाता है। ५. बिम्बात्मकता या चित्रात्मकता - यह स्तुतिकाव्य का प्रमुख तत्त्व है। उपास्य के विभिन्न रूपों एवं गुणों का स्पष्ट बिम्बन इस काव्य विधा में होता है। भक्तामर के प्रथम छ: श्लोकों में भक्त की निरीहता एवं समर्पण का बिम्ब उदात्त एवं उत्कृष्ट है। चौथे श्लोक में प्रणयकालीन जल एवं उसे पार करने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525023
Book TitleSramana 1995 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1995
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size5 MB
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