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४० : श्रमण
मेरे गले नहीं उतर रही है कि ग्रन्थों के स्वाध्याय के पुनीत कार्य को वे विधान बनाकर कर्मकाण्ड में क्यों जकड़ देना चाहते हैं। क्योंकि आगे चलकर यह कर्मकाण्ड बनकर रह जायेगा और ग्रन्थ के स्वाध्याय की प्रवृत्ति एवं तत्त्व बोध की रुचि लुप्त हो जायेगी। पण्डित ये विधान करते रहेंगे। दूसरे यह कि यह सारा विधान हिन्दू परम्परा का अन्धानुकरण. मात्र है
और जैनतत्त्व ज्ञान का विरोधी भी है। यह अमृत में विष मिलाने के सदृश है, जिसके परिणाम भविष्य में कटु होंगे। इस स्पष्टोक्ति के लिए पवैया जी से क्षमा चाहूँगा।
पुस्तक - प्राकृत रचना सौरभ लेखक - डॉ० कमलचन्द सोगाणी प्रकाशक - अपभ्रंश साहित्य अकादमी, जैन विद्या संस्थान, दिगम्बर जैन अतिशय
क्षेत्र श्री महावीर जी, राजस्थान प्रथम आवृत्ति - १९९४, आकार - डबल डिमाई मूल्य - पुस्तकालय संस्करण : ७५.०० रु०, विद्यार्थी संस्करण : ५०.०० रु०
प्राचीन काल से ही प्राकृत भाषा का भारतीय आर्य भाषाओं में अपना एक विशिष्ट स्थान रहा है। इसका ज्ञान हमें इसके प्रकाशित और अप्रकाशित साहित्य द्वारा होता है। यह निर्विवाद सत्य है कि अपभ्रंश के अध्ययन एवं अध्यापन को सशक्त करने के लिए प्राकृत भाषा का अध्ययन एवं अध्यापन अत्यन्त आवश्यक है। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर डॉ० कमलचन्द सोगाणी ने प्राकृत रचना सौरभ नामक पुस्तक को अपभ्रंश रचना सौरभ नामक पुस्तक की पद्धति पर लिखा है। किसी भी भाषा को सीखने या समझने के लिए उसकी रचना प्रक्रिया और उसके व्याकरण का ज्ञान होना परम आवश्यक है, इसलिए उन्होंने उक्त पुस्तक में व्याकरण के सभी पहलुओं को अत्यन्त सरलता से समझाया है। इससे जनसामान्य का उपकार तो होगा ही साथ ही उन सभी प्राकृत भाषा के जिज्ञासुओं का उपकार होगा जो प्राकृत भाषा के व्याकरण का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।
पुस्तक - इतिहास के अधखुले पृष्ठ लेखक - शरद कुमार साधक प्रकाशक - जय जगत प्रकाशन, वाराणसी । संस्करण - प्रथम ( १९९४ ), आकार - डिमाई सोलह पेजी मूल्य - ३०.०० रु०, रु० ४०.०० ( पुस्तकालय )
इतिहास अतीत की कहानी कहता है और भारतीय इतिहास का प्राचीन काल अनेक रहस्यों से भरा पड़ा है। यह एक कटु सत्य है कि हमारे इतिहास का अधिकांश भाग अनुमान पर आधारित है। इतिहास के उस अंधकारमय अंश को जानने के लिए हम पौराणिक कथाओं
और अनुश्रुतियों का सहारा लेते हैं। पुरातात्त्विक भग्नावशेषों, उत्खनित टीले आदि अपने अन्दर अतीत की ढेरों स्मृतियों को छिपाये पड़े हैं जो आज भी बन्द पन्ने की तरह किसी खोजी Jain Education International For Private & Personal Use Only
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