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________________ कर्म-प्रचय है और यह नामकर्म के अनेक सूक्ष्म ( तेजस, कार्मण) और स्थूल ( औदारिक आदि) रूपों से निर्मित है। शरीर और आत्मा दोनों विजातीय ( मूर्त-अमूर्त) द्रव्य हैं। उनका सामान्यतः संयोग नहीं हो सकता। इस विषय में जानने-देखने की क्रिया के समान अथवा आकाश-पुद्गल संयोग के समान मूर्त-अमूर्त संयोग का निदर्शन बहुत रुचिकर नहीं लगता । 10 फिर भी, इनका प्रथम संयोग कैसे हुआ, इसकी कोई व्याख्या शास्त्रों में नहीं पाई जाती । पर व्यावहारिक दृष्टि से व्यावहारिक जीवन की व्याख्या के लिये जीवन का प्रादुर्भाव सशरीर जीव (शरीर + आत्मा) के रूप में अनादिकाल से माना जाता है । सशरीर जीव मूर्त है, अतः उससे मूर्त कर्मों का संयोग तो हो ही सकता है । पुनर्जन्म का आधार भी मृत्यु के समय सूक्ष्म शरीरी जीव का गमन है । इस संयोग के निरन्तर परिवर्तन / परिवर्धनशील होने से ही संसार की प्रक्रिया चलती है। यदि ऐसा न माना जाय तो संसार, कर्मबन्ध और मोक्ष सभी की अस्तित्व - हानि होगी। 11 कुन्दकुन्द के अनुसार, प्रायोग्य-कर्म वर्गणायें स्कंध के छह भेदों में से पंचम कोटि की है। 12 अनन्तानन्त परमाणु मिलकर ये कर्म-वर्गणायें बनाते हैं और समुच्चित होकर बन्धनीय कर्म का रूप ग्रहण करती है। 13 ये जीव की मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्तियों के अनुरूप बृहत्तर बनती जाती है और आसव के रूप में बंध के लिये आकृष्ट होती है। इस प्रकार जघन्यतः एक बन्धनीय कर्म - यूनिट (अनन्तानन्त ) 2 परमाणुओं से निर्मित होता है- 1. कर्म - यूनिट = कर्म और कर्मबन्ध : 13 अनन्तानन्त परमाणु अनन्तानन्त वर्गणा = (अनन्त) + A.V. A = परमाणु V = वर्गणा शास्त्रों में वर्गणाओं का सजातीय परमाणु समूहों का उत्तरोत्तर स्थूलता के आधार पर वर्गीकरण किया गया है। इसके अनुसार, तेजस - शरीर वर्गणा = (अनन्त) 1) 4 कार्मण शरीर वर्गणा (अनन्त) 10 = परमाणु परमाणु यह स्पष्ट है कि किसी भी कर्म यूनिट में अनन्त परमाणु समुच्चय होते हैं, फिर भी वे इन्द्रिय अग्राह्य एवं परम सूक्ष्म होते हैं। सूक्ष्मता के साथ ऊर्जामयता का अविनाभावी सम्बन्ध है। सूक्ष्मता जितनी ही उच्च कोटि की होगी, कर्म की ऊर्जाशक्ति भी उतनी ही अधिक होगी। यह तथ्य होम्योपैथी की दवाइयों की "पोटेंसी" एवं तरल औषधियों की क्षमता से प्रकट होता है। मूर्तिक कर्मों की इतनी अधिक सूक्ष्मता उन्हें अमूर्त के समकक्ष बनाती प्रतीत होती है। कर्मबन्ध : बन्धनगुण और प्रक्रिया मूर्त जीव एवं मूर्त कर्म-परमाणुओं में योग कषायादि प्रवृत्तियों के कारण आकर्षण और संयोग होता है । हमारा सशरीरी जीव, भगवती के अनुसार, कर्म के साथ अन्योन्यबद्ध और स्पष्ट है और ऐसा लगता है जैसे इस प्रक्रिया में विशेष प्रकार का स्नेह या चिपकावक (स्निग्धता) काम कर रहा हो। 14 जीवित तन्त्र के साथ विजातीय निर्जीव कर्म-द्रव्य के संयोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525020
Book TitleSramana 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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