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14 : नन्दलाल जैन
के सम्बन्ध में शास्त्रों में पर्याप्त चर्चा है और आधुनिक विद्वानों ने भी इस पर विचार किया है। यही नहीं, इस संयोग के प्राथमिक एवं द्वितीयक कारणों को लेकर अनेक वर्षों से विचारों की अस्पष्टता बनी हुई है । यदि आगम और आगम तुल्य ग्रन्थों को कालक्रम से व्यवस्थित कर उस प्रक्रिया का अध्ययन किया जाय, तो अनेक परम्परायें प्राप्त होती हैं जो एकक-दूसरे का सूक्ष्म और स्थूल रूप प्रतीत होती हैं।
यह माना जाता है कि दो बंधनीय मूर्त पदार्थों में कुछ बन्धनकारी गुण होने चाहिये । उदाहरणार्थ, परमाणुओं में बन्ध, स्निग्धता या रुक्षता उसके परिमाण पर निर्भर करता है। 15 इसी प्रकार सशरीरी जीव और कर्म यूनिटों में भी ये गुण होने चाहिये । संयोग या बन्ध इन गुणों की परस्पर विरोधिता एवं गुणात्मक आकर्षणीयता के कारण होता है। साथ ही यह भी स्पष्ट है कि बन्धता के गुण बन्धनीय सभी घटकों में होने चाहिये। किसी एक घटक में भी (जीव, कर्म ) इन गुणों के अभाव में बंधन नहीं होगा। सामान्यतः यह स्पष्ट है कि जीव भी सकर्म है और प्रायोग्य कर्म भी कर्मयोग्य हैं। एक घटक जीव के साथ रहता है और दूसरा घटक उसके बाहर चारों ओर रहता है। इन दोनों घटकों में ही बन्धन - गुण होना चाहिये ।
चारों ओर फैले हुए कर्म - परमाणुओं में तो स्वाभावतः स्निग्धता- रुक्षता पाई जाती है । पर जीव- सहचरित कर्मद्रव्यों में यह गुण कहाँ से आता है ? प्रत्येक जीवित तन्त्र गतिशील, परिणमनशील एवं ऊर्जामित्र होता है। इसमें सदैव राग, द्वेष आदि भावात्मक प्रवृत्तियाँ होती रहती है। इन भावात्मक प्रवृत्तियों को भावकर्म कहते हैं। ऐसा माना जाता है कि अच्छे भावों की गुणात्मकता, अशुभ भावों से भिन्न होती है । भगवती 16, प्रवचनसार 17 और में इस द्विषयक विवरण का सार निम्न है --
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परमात्मप्रकाश
1. मोहभाव, द्वेषभाव - अशुभकर्म / पापकर्म भारीकर्म, ऋणात्मक, रुक्ष • शुभ/अशुभकर्म हल्का / भारी ऋण/ धन, रुक्ष, स्निग्ध 3. अनन्त सुख आदि- चार शुभकर्म हल्काकर्म धनात्मक, स्निग्ध
2. रागभाव
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इससे स्पष्ट है कि हमारी शुभ-अशुभ भावात्मक प्रवृत्तियों के गुण भिन्न-भिन्न होते हैं । फलतः इन प्रवृत्तियों से सहचरित परमाणुओं में भी बन्धन- गुण पाये जाते हैं। भावकर्मों के समान द्रव्यकर्मों में तो ये गुण और भी स्पष्ट होते हैं । वस्तुतः भावकर्म और द्रव्यकर्मों की अन्योन्यप्रभाविता का एक अविरत चक्र है-
भावकर्म
द्रव्यकर्म
इस चक्र को भूत, भविष्य और वर्तमान के रूप में विस्तारित भी किया जा सकता
है।
पूर्व-अर्जित द्रव्यकर्म वर्तमान भावकर्म
भावकर्म वर्तमान द्रव्यकर्म (भावी)
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फलतः कर्म का एक रूप दूसरे रूप में चक्रीय रूप से प्रभावित होता रहता है। इन दोनों में जन्म-जनक या निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध पाया जाता है। भावकर्म
मुख्यतः मानसिक,
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