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12 : नन्दलाल जैन
अवचेतन मन और परा-मानसिक घटनायें सम्मिलित हैं। इनमें अनेकों में कार्य-कारणवाद लागू नहीं होता। इसी प्रकार, जब व्यक्ति या व्यक्ति समूह अन्तः ग्रथित धागे के रूप में अन्योन्यसंबद्ध
और प्रभावित होते हैं, तब व्यक्ति का व्यक्तित्व या कर्म स्वतन्त्र कहाँ रहा जो उसका भाग्य विधाता माना जाता है ? साथ ही, यह संसार अच्छाई और बुराई के समान अनेक विपरीत गुणों का समूह है। किसी एक घटक में होने वाला परिवर्तन अन्य को भी स्वाभावतः प्रभावित करता है। इस तरह संसार एक संघर्षशील तन्त्र है और कर्मवाद को इस संघर्ष को संतुलित करने का सिद्धान्त माना जा सकता है। मनुष्य की समग्रता की धारणा, कार्यकारणवाद की सापेक्षता, अच्छे कर्मों को भी बंधकता की मान्यता एवं आनुवंशिकता के मूलकों का प्रयोगशालेय प्रयोग आदि तथ्य कर्मवाद को किंचित् अपूर्ण मानने की ओर इंगित करते हैं। फिर भी, पूर्व देशों में इस सिद्धान्त की भित्ति स्थिर है और इस पर वर्तमान अन्वेषणों का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा है।
यही नहीं, यह सिद्धान्त ऐसी घटनाओं की व्याख्या मनोवैज्ञानिक रूप से करता है जिन्हें सामान्यतः जटिल माना जाता है। दुर्घटनाओं के समय अचानक अनेकों में कुछ व्यक्ति/व्यक्तियों का बच जाना, एक ही परिवार के सदस्यों में बुद्धि, अध्यवसाय या शारीरिक विषमतायें, पूजारी या सद्धर्मियों का प्रायः कष्टमय जीवन एवं परोक्ष-अर्जकों का विलासी जीवन, अनेक जटिल या आनुवंशिक बीमारियाँ तथा कार्यक्रमों के आकस्मिक परिवर्तन आदि घटनायें सुज्ञात है। इनमें से अनेक घटनाओं को केवल आनुवंशिकी के आधार पर नहीं समझाया जा सकता। शास्त्रीय दृष्टि से कर्म शक्ति और कर्म प्रभाव ही इनका तर्कसंगत कारण लगता है। इन्हीं कारणों से कर्मवाद पर आज भी लोगों की दृढ़ आस्था है।
वैज्ञानिक दृष्टि से यह एक अमूर्त सिद्धान्त है। इसकी लोकप्रियता के लिये विभिन्न प्रकार के शास्त्रीय कर्मकाण्डों (विधान, उत्सव, व्रत-तप आदि) को माध्यम बनाया गया है जिससे वर्तमान जीवन में नैतिक उच्चता एवं भावी जीवन में प्रशस्तता आये। फिर भी, वैज्ञानिकों के लिये पूर्वजन्म कृत कारण और वर्तमान कार्य तथा वर्तमान कारण एवं भावी कार्य के बीच सम्बन्धों को प्रयोग सिद्ध करना अभी भी एक समस्या बनी हुई है। कर्म का सामान्य विवरण
कर्म की प्रकृति को समझाने के लिये अष्टपाहुड के समान अनेक शास्त्रों में एक दर्जन से अधिक उपमानों का प्रयोग किया गया है। कर्म राजा, शत्रु, पर्वत, काजल, कीट, ईंधन, रज (धूलि), बीज, कलंक, चक्र, विष, वन, बेड़ी एवं मल के समान है। यह लता, वृक्ष, रितु, धारा-प्रवाह तथा रस्सी के समान है। नये युग में नई उपमायें भी सामने आई हैं। मारेट ने इसे वायरस बताया है और मर्डिया' ने चुंबक कहा है। इन उपमानों से कर्म की प्रकृति, कार्य और प्रभाव का अनुमान स्वयमेव लग जाता है। कर्म की विशेषता यह है कि यह सशरीरी जीव के साथ सम्पर्क कर सकता है। अन्य भौतिक पदार्थों में यह लक्षण नहीं पाया जाता।
हमारा सशरीरी जीव मूर्त शरीर और अमूर्त आत्मा का संयुक्त रूप है। मूर्त शरीर Jain Education International For Private & Personal Use Only
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