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________________ कर्म और कर्मबन्ध : 11 उसकी तुलना में षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र में इस सिद्धान्त के विकास का अनुमान लगाया जा सकता है। ___ भौतिकवादी मान्यताओं की तुलना में कर्मवाद, आत्मवाद, पुनर्जन्म और कर्मफलवाद की मान्यता पर आधारित है। धर्म के व्यक्तिपरक विकास की धारणा के कारण शास्त्रों में कर्म-विवेचन का आधार भी व्यक्ति प्रधान रहा है। तदनुसार व्यक्ति का व्यक्तित्व, चरित्र, विकास, भाग्य और भावी जीवन उसके संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण कर्मों पर निर्भर करता है। पुनर्जन्म पर आधारित होने के कारण यह कर्म के शुभा-शुभ या पुण्य-पाप के भेद के आधार पर हमारा आध्यात्मिक विकास नियन्त्रित करता है। बीसवीं सदी में इसमें समूह-कर्मना (धर्म, सम्प्रदाय एवं राष्ट्र) भी समाहित हो गई है। प्राचीन समय में सम्भवतः इस ओर ध्यान नहीं गया था। पर, अब यह माना जाता है कि कार्मिक दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति अन्य व्यक्तियों से सम्बन्धित है और हम सभी के कर्म-सूत्र हमारे सम्प्रदाय, समूह एवं राष्ट्र के साथ अंतः ग्रथित वैज्ञानिक युग में कर्मवाद के सिद्धान्त को कार्य-कारणवाद के रूप में न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया से सम्बन्धित तीसरे गतिनियम के अनुरूप माना जाता है : क्रिया ===== प्रतिक्रियाः कर्म ===== कर्मफल लेकिन गतिनियम तो केवल भौतिक घटनाओं के नियतिवादी नियम को व्यक्त करता है जबकि कर्मवाद चेतन जगत और शक्तियों पर भी लागू होता है। फलतः कर्मवाद न्यूटन के तीसरे नियम का ईसा पूर्व-कालीन विस्तार है। साथ ही, जैनों का कर्मसिद्धान्त गतिनियमों के समान नियतिवादी नहीं है, सशरीरी जीव अन्तः-बाह्य प्रयासों से इसे उत्परिवर्तित या अपवर्तित कर सकता है। उदीरणा और अपवर्तना के प्रक्रप इसके उदाहरण हैं। अनेक महापुरुषों के पूर्वजन्म की पशु-मनुष्य योनियों इसके साक्ष्य है। फलतः यह सिद्धान्त विकासवाद का किंचित् सुन्दर रूप है जो केवल अपरिवर्तन मानता है। अतः जैन कर्मवाद एक तरल और गतिशील सिद्धान्त है जो अनेक अतिरिक्त कारकों के योग से वर्तमान और भविष्य को प्रोन्नत कर सकता है। इसीलिये कर्मवाद में आय-व्यय का खाना लचीला होता है। उसकी कार्य पद्धति रितु-पैटर्न के समान अनेक कारकों के समग्र प्रभाव से प्रचलित होती है। फलतः अब यह सिद्धान्त एक अन्योन्यसम्बद्ध, अन्योन्यप्रभावी, बहुआयामी और समग्र तन्त्र के रूप में माना जाता है। नवीन वैज्ञानिक शोधों ने हमारी आकाश-काल सम्बन्धी धारणाओं में परिवर्तन किया है। द्रव्यमान-ऊर्जा को अन्योन्यस्पान्तर के स्प में सिद्ध कर दिया है। कार्य-कारणवाद के सिद्धान्त से विचलन के भी अनेक प्रयोगाई.पी.आर. प्रयोगा सामने आये हैं। इससे अब कर्म अन्य तन्त्रों के लिये अमूर्त या पराशक्ति नहीं रह जाता, वह जैनों के समान भौतिक सूक्ष्मकण या ऊर्जा के स्प में सिद्ध होता है। फलतः अब कर्मवाद केवल व्यक्तियों की भौतिक, मानसिक और भावात्मक प्रक्रियाओं से उत्पन्न ऊर्जा के परिणामों को व्यक्त करता है। उसके समग्र व्यक्तित्व में कर्म के अतिरिक्त अन्य अनेक कारकों के आयाम भी सम्मिलित हो गये है। इनमें अचेतन या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525020
Book TitleSramana 1994 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages50
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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