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________________ डॉ. रत्ना श्रीवास्तवा व्यक्तिगत परिस्थितियों से प्रभावित नहीं होती है। इनके ठीक विपरीत कर्म की नैतिकता सापेक्ष है-- यह विचार है क्योंकि इस पक्ष के अनुसार किसी कर्म की नैतिकता, देशकाल, व्यक्ति और परिस्थिति के परिवर्तित होने से परिवर्तित हो सकती है अर्थात् जो कर्म एक देश-काल परिस्थिति में नैतिक माना जाता था वही दूसरे युग में अनैतिक माना जा सकता है। इसी प्रकार जो आचार किसी युग में नैतिक माना जाता था वही दूसरे युग में अनैतिक माना जा सकता है तथा जो कर्म एक व्यक्ति के लिए एक परिस्थिति में नैतिक हो सकता है वही दूसरी परिस्थिति में अनैतिक हो सकता है। देश-काल एवं व्यक्तित्व तथा समाज की परिस्थिति उन्हें प्रभावित करती है । सापेक्षवादी विचारकों के मतानुसार परिस्थिति निरपेक्ष कर्म नैतिक मूल्यांकन का विषय नहीं है। वास्तव में कर्म की नैतिकता का मूल्यांकन उसी परिस्थिति के आधार पर किया जाता है जिसमें वह सम्पन्न होता है तथा परिस्थिति के परिवर्तित होते ही कर्म का नैतिक मूल्य भी बदल सकता है। तत्त्वार्थ सूत्रान्तर्गत छठें अध्याय में (पृ. 159 ) वर्णित वेदनीय (साता - असाता ) कर्मों के अध्ययन से हमें यह अभिज्ञात होता है कि तत्त्वार्थसूत्रकार कर्म की नैतिकता के आधार को निरपेक्ष नहीं अपितु सापेक्ष मानते हैं। इस बात की पुष्टि निम्नलिखित उद्धरणों द्वारा होती है "यह तो सर्वविदित है कि एक को जिन प्रसंगों में दुःख होता है उसी प्रसंग में दूसरों को भी दुःख हो यह आवश्यक नहीं...। जैसे नियमव्रतादि का पालन करना तपस्वी के लिए कष्टदायक होते हुए भी सुखकर होता है किन्तु उन्हीं नियमव्रतादि से सामान्य मनुष्य को कष्ट होता है। दूसरे, जिस प्रकार कोई दयालु वैद्य चीर-फाड़ के द्वारा किसी को दुःख देने का निमित्त बनने पर भी करुणावृत्ति से प्रेरित होने के कारण पापभागी नहीं होता, वैसे ही सांसारिक दुःख दूर करने के लिए उसके ही उपायों को प्रसन्नतापूर्वक करता हुआ त्यागी भी सद्वृत्ति के कारण पाप का बन्ध नहीं करता "... । (तत्त्वार्थसूत्र, पं. सुखलाल संघवी, पृ. 159 ) अब प्रश्न उठता है कि कर्म की नैतिकता का आधार कैसा होना चाहिए ? निरपेक्ष या सापेक्ष ? वस्तुतः यह एक बड़ी गम्भीर समस्या है कि हम कर्म की नैतिकता के आधार को कैसा मानें, यदि हम किसी कर्म की नैतिकता के आधार को निरपेक्ष मानते हैं तो, हम जिस कर्म को एक परिस्थिति, समय में नैतिक, शुभ, अच्छा मानते हैं वही कर्म दूसरी परिस्थिति, समय में, अनैतिया, अशुभ एवं बुरा हो जाता है। उदाहरणार्थ " सती प्रथा को एक समय में नैतिक एवं अच्छा माना जाता था, किन्तु उसी प्रथा को अब अनैतिक एवं बुरा समझा जाता है। अतः हम नैति के आधार को निरपेक्ष नहीं मान सकते। पुनः नैतिकता के आधार को सापेक्ष मानने पर भी समस्या का अन्त नहीं हो पाता है क्योंकि परिस्थिति, देश-काल आदि सापेक्ष होने से किसी कर्म की नैतिकता के आधार के विषय में कोई एक सुनिश्चित मत नहीं रहता है अर्थात् हम किसी भी कर्म को निश्चित रूप से नैतिक या अनैतिक नहीं कह पाते हैं क्योंकि परिस्थिति के परिवर्तन के साथ-साथ एक ही कर्म नैतिक या अनैतिक होता रहता है। इस विचारधारा के अन्तर्गत और भी मुश्किल है क्योंकि Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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