SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 10
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ निरपेक्षवादी विचारधारा में कम से कम किसी कर्म की नैतिकता-अनैतिकता निश्चित तो रहती है किन्तु इसमें तो वह भी नहीं है। वस्तुतः इसमें हम यह कथन कर पाने में असमर्थ हैं कि अमुक कर्म सार्वभौमिक रूप से नैतिक है और अमुक कर्म अनैतिक। कर्म की नैतिकता-अनैतिकता के आधार की अनिश्चितता के कारण हम यह निर्णय कर पाने में असमर्थ हैं कि जो कर्म मेरे या अन्य के द्वारा किया जा रहा है वह नैतिक है या अनैतिक। पुनः यदि हम कोई एक निश्चित आधार मान भी लें तो हमारे द्वारा जो कर्म विषयक निर्णय दिया जायेगा उसमें दो पक्ष तो अनिवार्यतः विद्यमान ही होंगे कर्ता का प्रयोजन एवं कर्म का परिणाम । जब हम अन्य व्यक्ति के कर्मों की नैतिकता-अनैतिकता का निर्णय करते हैं तो हम केवल किए गये कर्मों के परिणामों से ही अवगत हो पाते हैं, किन्तु उस कर्म के पीछे कर्ता का प्रयोजन क्या था, हम नहीं जान पाते हैं। वस्तुतः यह एक कठिन समस्या है, क्योंकि किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी कर्ता के विषय में यह पता लगा पाना मुश्किल है कि उसका कर्म के पीछे क्या प्रयोजन था ? और साथ ही यह जानना भी मुश्किल है कि किसी कर्ता ने यदि कोई कर्म किया है तो उस कर्म के परिणाम का दूसरों पर क्या प्रभाव पड़ा। उदाहरणार्थ यदि किसी व्यक्ति को दुर्घटना में चोट लग जाती है, तो डॉक्टर यदि उसकी टाँग काट देता है क्योंकि वह सोचता है कि ऐसा करने से ही रोगी जीवित रह सकता है, तो यहाँ इस प्रसंग में यह कह पाना कठिन है कि रोगी को अपनी टाँग डॉक्टर से कटवाना नैतिक या अच्छा लगा कि नहीं क्योंकि हो सकता है कि उसे टाँग गँवाना अच्छा न लगता हो। हम अपने कर्मों के विषय में तो निर्णय दे सकते हैं किन्तु अन्यों के विषय में दिये गये नैतिक निर्णय सर्वदा अपूर्ण होंगे। वास्तव में हम सभी की ज्ञान की एक सीमा है उससे परे जा पाना कठिन है। स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न हमारे मन को उद्वेलित कर रहा है कि हमारे जीवन का क्या उद्देश्य है ? वास्तव में नैतिक कर्मों को जीवन में उतारने से हमारे जीवन को क्या लाभ मिल सकता है ? इसके पालन के पीछे क्या उद्देश्य है..? नैतिक कर्मों से जीवन प्रणाली का निर्माण होला है और यदि प्रत्येक मानव का जीवन इसी प्रकार हो जाय तो एक सुव्यवस्थित एवं विकासेत मानव समाज की स्थापना हो जाए, जो कि सम्पूर्ण राष्ट्र के लिए हितकर होगा। वस्तुतः नैतिक कर्म प्रत्येक प्राणी को दुष्कर्मों में प्रवृत्त करने से रोकता है और सदाचार, परोपकार, शांति और सह-अस्तित्व की ओर प्रेरित करता है। यह "जिओ और जीने दो" का उत्तम मार्ग दिखाता है। वस्तुतः नैतिक कर्मों का लक्ष्य एक ऐसे समत्व की संस्थापना करना है जिससे आन्तरिक मनोवृत्तियों का संघर्ष, आन्तरिक इच्छाओं और उनकी पूर्ति के बाह्य प्रयासों का संघर्ष और बाह्य समाजगत एवं राष्ट्रगत संघर्ष जो स्वयं व्यक्ति के द्वारा प्रसूत नहीं होते हुए भी उसे प्रभावित करते हैं, समाप्त हो जायें। नैतिक कर्म द्वारा ही राष्ट्र का उत्थान सम्भव है। हमारा सामाजिक जीवन, चिन्तन संघर्ष तथा अनवरत कर्मों द्वारा अपने परिवार, समाज एवं देश की सेवा करने का सोपान है। मानव जीवन ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र एवं विश्व, यहाँ तक कि मानवता भी वैरागियों से नहीं, अपितु कर्मयोगियों से जीवित है। आज की सभ्यता, संस्कृति, कला, साहित्य, विज्ञान आदि जिन्होंने Jain Education International For Private &&ersonal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy