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रहते हुए कर्मों से विमुख नहीं हो सकता, कर्म तो होते ही रहेंगे। किसी भी दशा में उनसे विरत नहीं हुआ जा सकता । अतः उन कर्मों को न छोड़ना है न बदलना है, किन्तु केवल धारणा को परिवर्तित करना है। अच्छी धारणा में ही कर्म की नैतिकता एवं बुरी धारणा में अनैतिकता अन्तर्निहित है। संक्लेशरहित या निष्कामभाव से किये गये कर्म ही नैतिक होते हैं, क्योंकि निष्कामभाव से जो कर्म किया जाता है, वह जान-बूझकर किसी पाप दृष्टि से नहीं किया जाता परन्तु यदि कहीं भूल, अज्ञान या भ्रमवश कोई पाप हो जाता है तो वह उसे बन्धनकारी नहीं होता है क्योंकि उस कर्म में उसका कोई स्वार्थ नहीं होता है। निष्काम कर्म का आचरण करने वाले पुरुष की स्थिति आसक्त पुरुष से अत्यन्त क्लिक्षण होती है। उसके मन में किसी प्रकार की सांसारिक कामना नहीं होती, वह जो कुछ भी कर्म करता है वह सब फल की इच्छा को छोड़कर आसक्तिरहित होकर करता है। तत्त्वार्थकार की दृष्टि में किसी भी कर्म की नैतिकता, अनैतिकता कर्त्ता के चैतसिक पक्ष या मानसिक भावों पर ही निर्भर है। कर्त्ता द्वारा कृत कर्मों का जो बाह्य स्वरूप हमें परिलक्षित होता है (परिणाम के रूप ) वह तत्त्वार्थकार की दृष्टि में कर्मों की नैतिकता - अनैतिकता का मापदण्ड नहीं है, आधार नहीं है अपितु जो कुछ भी है वह है कर्त्ता का प्रयोजन, हेतु और उसकी मनोभावना । निस्पृह भाव से, निष्कामभाव से वासनारहित होकर जो कर्म किया जाता है वही नैतिक, शुभ, पुण्यकारी कर्म है तथा इसके विपरीत अनैतिक, अशुभ एवं पापकारी कर्म है। जैसे कोई दयालु वैद्य चीर-फाड़ द्वारा किसी रोगी को दुःख देने का निमित्त बनने पर भी करुणावृत्ति से प्रेरित होने से पापभागी नहीं होता।
तत्त्वार्थकार का उपर्युक्त कथन कर्त्ता की भावना को लेकर ही किया गया है। कुछ ऐसे ही विचार अन्य जैन विचारकों के भी हैं "रागादि (भावों) से मुक्त व्यक्ति के द्वारा आचरण करते हुए यदि हिंसा (प्राणघात) हो जाय तो वह हिंसा नहीं है" आचार्य अमृतचन्द्र । "साधारण लोग यह समझ बैठते हैं कि अमुक काम नहीं करने से अपने को पुण्य-पाप का लेप नहीं लगेगा। इससे वे काम को छोड़ देते हैं पर बहुधा उनकी मानसिक क्रिया नहीं छूटती । इर. से वे इच्छा रहने पर भी पुण्य-पाप के लेप (बन्ध) से अपने को मुक्त नहीं कर सकते । यदि कषाय (रागादिभाव) नहीं है तो ऊपर की कोई भी क्रिया आत्मा को बन्धन में रखने में समर्थ नहीं है। इससे उल्टे यदि कषाय का वेग भीतर वर्तमान है तो ऊपर से हजार यत्न करने पर भी कोई अपने को बन्धन से छुड़ा नहीं सकता। इसी से यह कहा जाता है "आसक्ति छोड़कर जो कार्य किया जाता है वह बन्धनकारक नहीं होता"
सुखलाल संघवी ।
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अब प्रश्न यह है कि, कर्म की जो नैतिकता है उसका आधार सापेक्ष है या निरपेक्ष ? जब से नीति चारकों ने कर्म विषयक स्वरूप, प्रकारादि की भिन्न-भिन्न रूपों में चर्चा की है तभी से उसके नैतिक मानदण्ड और नैतिक मूल्यांकन को लेकर उनके मध्य पारस्परिक विवाद पनपता रहा है। क्योंकि कुछ विचारक तो इसके आधार को निरपेक्ष रूप में तो कुछ ने सापेक्ष रूप में मान्यता दी है। जहाँ तक निरपेक्षवादी पक्ष की बात है उनकी यह मान्यता है कि कर्म की नैतिकता का आधार निरपेक्ष है अर्थात् प्रत्येक परिस्थिति, देश, काल आदि में नैतिकता का आधार परिवर्तित नहीं होता है एक ही समान रहते हैं । निरपेक्ष नैतिकता देशकालगत अथवा
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