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आवश्यक है कि हम किन-किन आधारों पर किसी कर्म को नैतिक-अनैतिक मानते हैं ।
वैसे नीति विचारकों की इस विषय में दो दृष्टियाँ हैं प्रथम दृष्टि के अनुसार किसी भी कर्म को नैतिक या अनैतिक मानने का आधार कर्त्ता का विशिष्ट उद्देश्य, प्रयोजन या हेतु है । इसमें चूँकि कर्ता के मनोभावों के आधार पर कर्म की नैतिकता - अनैतिकता का निर्णय किया जाता है इसलिए हम इस आधार को कर्म के मानसिक पक्ष की संज्ञा दे सकते हैं क्योंकि किसी भी कर्म के नैतिक-अनैतिक होने में कर्त्ता की भावनाओं को ही यहाँ आधार रूप में माना गया
है।
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द्वितीय दृष्टि के अनुसार किसी कर्म को नैतिक-अनैतिक मानने का आधार जगत में दृश्यमान कर्म परिणाम है अर्थात् किसी कर्म के अच्छे-बुरे परिणाम को देखकर उसे नैतिक या अनैतिक कहा जाता है। प्रथम दृष्टि को नैतिकता के आधार का मानसिक या आन्तरिक पक्ष एवं द्वितीय दृष्टि को बाह्य या भौतिक पक्ष कहा जा सकता है। वस्तुतः नीति विचारकों के मध्य यह एक विवाद का ही विषय बना हुआ है कि हम कर्म की नैतिकता, अनैतिकता का आधार किसे बनाएँ? कर्त्ता के प्रयोजन को ? या कृत कर्मों के परिणाम को ?
जैन विचारक इस विवाद को अपनी अनेकान्तवादी दृष्टि के आधार पर सुलझा देते हैं । उन्होंने प्रयोजन एवं परिणाम दोनों को ही कर्म की नैतिकता का आधार बनाया है, किन्तु उन्होंने प्रधानता कर्त्ता के प्रयोजन को ही दी है। कर्त्ता शुभ-भाव से प्रेरित होकर जो कर्म करेगा वह नैतिक होगा भले ही उसका फल या परिणाम कुछ भी हो। यह दृष्टिकोण जैन विचारणा में यत्र-तत्र उपलब्ध है। आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट रूप से कहा है अध्यवसाय अर्थात् मानसिक हेतु ही बन्धन का कारण है चाहे बाह्य रूप में हिंसा हुई हो या न हुई हो। जैन आचार दर्शन कार्य के परिणाम या फल से व्यतिरिक्त उसके हेतु की शुद्धता पर ही बल देता है। उसके अनुसार यदि कार्य किसी शुद्ध प्रयोजन से किया गया है तो वह शुभ ही होगा चाहे उससे किसी दूसरे को दुःख ही क्यों न पहुँचा हो और यदि अशुभ प्रयोजन से किया गया है तो अशुभ ही होगा चाहे परिणाम के रूप में उससे दूसरों को सुख ही हुआ हो 1
तत्त्वार्थ सूत्रानुसार कर्म की नैतिकता का आधार
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उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्रान्तर्गत कहा है ( शुभः पुण्यस्य, 6 / 3 अशुभः पापस्य, 6/4 ) शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग शुभ एवं अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग अशुभ है। हिंसा, चोरी, अब्रहम दि कायिक व्यापार अशुभ काय योग एवं दया, दान, ब्रह्मचर्यपालन आदि शुभ काय योग है। सत्य किन्तु सावद्य - भाषण, मिथ्याभाषण, कठोर भाषा आदि अशुभ वाक् योग है एवं निरवद्य भाषण, सत्य भाषण आदि शुभ वाग्योग है। दूसरों की बुराई का तथा उनके वध आदि का चिन्तन करना अशुभ मनोयोग एवं दूसरों की भलाई का चिन्तन आदि करना तथा उनके उत्कर्ष से प्रसन्न होना शुभ मनोयोग है। संक्लेश कपाय की मन्दता के समय होने वाला योग शुभ और संक्लेश की तीव्रता के समय होने वाला योग अशुभ है।
कर्म नैतिक तभी होगा जब उसे संक्लेशरहित होकर किया जाय। मानव कभी भी जीवन
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