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________________ कर्म की नैतिकता का आधार -- तत्त्वार्थसूत्र के प्रसंग में सभी कर्मों का नियत समय पर विपाक होता है और उसका फल हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है। कुछ अनियत विपाक को महत्त्व देते हैं वे कहते हैं सभी कर्मों का फल भोग आवश्यक नहीं है किन्तु जैन विचारणा कर्म विपाक की नियतता एवं अनियतता दोनों को ही स्वीकार करती है और यह बतलाती है कि कर्मों के पीछे रही हुई कषायों की तीव्रता एवं अल्पता के आधार पर ही क्रमशः नियत या अनियत विपाकी कर्मों का बन्ध होता है। कर्मों की विभिन्न अवस्थाएँ संक्रमण, उद्वर्तना, अपवर्तना, उदीरणा एवं उपशमन कर्मों के अनियत विपाक की ओर संकेत करती हैं और स्पष्ट रूप से यह बताती हैं कि व्यक्ति पूर्व में किये गये सभी कर्मों के फलों को नियत रूप से भोग करने के लिए बाध्य नहीं है। हमने जो कर्म किया है, जिसे हमने बोया है उसे चाहें तो दूसरे ही क्षण उखाड़ कर फेंक सकते हैं। हम कर्मों के फलों में संक्रमण ( परिवर्तन ) कर सकते हैं, उसे कम या अधिक कर सकते हैं अथवा यदि चाहें तो विशिष्ट साधना द्वारा पूर्व में बँधे हुए कर्म की फन्न देने की शक्ति को समाप्त कर सकते हैं। किन्तु जैन विचारणा यह भी मानती है कि जिन कर्मों का बन्ध तीव्र कपाय भावों के फलस्वरूप होता है वे नियत विपाकी होते है। कर्म फलभोग की चर्चा कर्म फल के विषय में योग वासिष्ठ' में यह वर्णित है -- न स शैलो नतद्व्योम न सोऽब्धिश्चन विष्टपम्। अस्ति यत्रफलं नास्ति कृतानामात्म कर्मणाम् ( योगवासिष्ठ) अर्थात ऐसा कोई पर्वत नहीं है, ऐसा कोई आकाश नहीं, ऐसा कोई समुद्र नहीं, ऐसा कोई स्वर्ग नहीं है जहाँ कि अपने किये हुए कर्मों का फल न मिलता हो। यह कहा जाता है और अनुभव में भी आता है कि मन का स्पन्दन ही कर्म रूपी वृक्ष का बीज है और तरह-तरह के फलवाली विविध क्रियायें उसकी शाखाएँ है... । अन्य नीति विचारकों ने भी कर्मों को फलयुक्त ही माना है। तत्त्वार्थसूत्रकार के विचार भी उपर्युक्त के समान ही हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी कर्मों को फलयुक्त माना है। कर्ता को अपने कर्मानुसार फलोपभोग करना ही पड़ता है। इस बात का निश्चय हो जाने पर कि जो भी कर्म कृत है, वे फलदायक हैं एवं कर्म का कर्ता उसका फलभोक्ता है, हमें अपने उन कर्मों के प्रति सचेत हो जाना चाहिए जो कि अभी हमारे पारा कृत नहीं हैं किन्तु जो भविष्य में कृत होंगे। क्योंकि हमें यह विदित हो गया है कि हम जैप कर्म करेंगे-- शुभ या अशुभ, अच्छा या बुरा, नैतिक या अनैतिक ठीक उसी के अनुरूप हम फलमग करने को भी बाध्य होंगे। अतः हमें कर्मों को करने के पूर्व सोच-विचार कर लेना चाहिए ताकि उसका परिणाम सुखद, कल्याणकारी, नैतिक एवं बन्धनरहित हो, किन्तु इस बात के लिए हमें यह ज्ञात होना आवश्यक है कि कौन-कौन से कर्म नैतिक या अनैतिक, शुभ या अशुभ, अच्छे या बुरे हैं ? किस आधार पर हम कर्मों को नैतिक-अनैतिक आदि कहते हैं। तत्त्वार्थसूत्रकार ने "शुभःपुण्यस्य, अशुभः पापस्य" ऐसा माना है। कर्म की नैतिकता-अनैतिकता के आधार के विषय में कोई विशिष्ट चर्चा हो, इसके पूर्व हमें संक्षिप्त रूप में यह जान लेना Jain Education International For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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