SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बारह भावनाओं के क्रमिक-विकास पर चिन्तन किया जाये तो ज्ञात होता है-- जिन संयोगों में तू सदा रहना चाहता है, वे क्षण-भंगुर है, अनित्य हैं (अनित्य भावना) लेकिन वियोग होना संयोगों का सहज स्वभाव है, उन्हें रोकने का कोई उपाय नहीं है, कोई ऐसी दवा नहीं, मणि-मंत्र-तंत्र नहीं, जो तुझे/तेरे पुत्रादि को मरने से बचा ले (अशरण भावना)। हे जीव ! तेरा यह सोचना भी ठीक नहीं कि दूसरे संयोग मिलेंगे, क्योंकि संयोगों में कहीं भी सुख नहीं है, सभी संयोग दःख स्प ही है (संसार भावना)। दुःख मिल-बाँटकर नहीं भोगे जा सकते, अकेले ही भोगने होंगे (एकत्व भावना)। कोई साथ नहीं देगा (अन्यत्व भावना)। जिस देह से त राग करता है, वह देह अत्यन्त मलिन है, मल-मूत्र का घर है (अशुचि भावना)। आरम्भ की इन छह भावनाओं में संसार, शरीर और भोगों के प्रति अरुचि/वैराग्य उत्पन्न कराकर आत्महितकारी तत्त्वों को समझने के लिए आत्मा को तैयार/प्रेरित किया जाता है। भूमिका (भूमिरिव भूमिका) जमाई जाती है अर्थात् इन भावनाओं में देहादि पर-पदार्थों से आत्मा की भिन्नता का ज्ञान कराके भेद-विज्ञान की प्रथम सीढ़ी भी पार करा दी जाती है। पुनः यह विचार किया जाता है कि आसव भाव दुःख स्प है, दुःख के कारण हैं (आसव भावना)। इन्हें रोका जा सकता है (संवर भावना) और अभ्यागत कर्मों की निर्जरा की जा सकती है (निर्जरा भावना)। पुनः लोक का स्वरूप बतलाकर (लोक भावना) रत्नत्रय की दुर्लभता का बोध किया जाता है (बोधिदुर्लभ भावना)। अन्त में यह बतलाते हैं कि अत्यन्त दुर्लभ रत्नत्रय रूप धर्म की आराधना इस मनुष्य भव का सार है (धर्म भावना) । इस प्रकार मनुष्य भव की सार्थकता एक मात्र त्रिकाली ध्रुव आत्मा के आश्रय से उत्पन्न सम्यादर्शन, सम्याज्ञान और सम्यक्चारित्र स्प रत्नत्रय धर्म की प्राप्ति में ही है। बारह भावनाओं के क्रमिक विकास का यह चिन्तन डॉ. भारिल्लजी की अनोखी सूझ-बूझ का फल है। अनित्य भावना के प्रसंग में डॉ. भारिल्लजी ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि अनित्य भावना का चिन्तन तो मुख्य रूप से सम्यादृष्टि ज्ञानियों को होता है, मनिराजों को भी होता है. तो क्या वे भी संयोगों और पर्यायों की क्षणभंगुरता से अनजान होते हैं ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए वे लिखते हैं -- नहीं, वे संयोगों और पर्यायों की क्षणभंगुरता से भली-भाँति परिचित होते हैं। अज्ञानजन्य आकुलता-व्याकुलता तो अज्ञानियों को ही होती है, सम्यादृष्टि ज्ञानियों को नहीं, किन्तु पूर्ण वीतरागता के अभाव में देव-शास्त्र-गुरु, शिष्य, माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि व देहादि संयोगों तथा शुभराग, विशिष्ट क्षयोपशमज्ञानादि पर्यायों में रागात्मक विकल्प यथासम्भव भूमिकानुसार सम्यग्ज्ञानियों के भी पाये जाते हैं, इष्ट संयोगों के वियोग में उनका भी चित्त अस्थिर हो जाता है। चित्त की स्थिरता के लिए वे भी संयोगों और पर्यायों की क्षणभंगुरता का बार-बार विचार करते हैं। उनका यह चिन्तन आम्नाय-स्वाध्याय स्प ही समझना चाहिए। डॉ. भारिल्लजी द्वरा उठाया गया यह प्रश्न और उसका समाधान जिज्ञासुओं के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। कभी-कभी ऊपर से समान प्रतीत होने वाली दो भावनाओं अथवा तत्त्वों आदि के मध्य होने वाले सूक्ष्म अन्तर को सामान्य पाठक नहीं समझ पाता है। अतः डॉ. भारिल्लजी ने उनके 58 For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy