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________________ मध्य होने वाले अन्तर को स्पष्ट करने के लिए एक विभाजन रेखा खींचकर विषय को सर्वगम्य बनाने का सफल/सकल प्रयास किया है। जैसे -- अनित्य भावना और अशरण भावना में मूलभूत अन्तर स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि अनित्य भावना में संयोगों और पर्यायों के अनित्य स्वभाव का चिन्तन होता है और अशरण भावना में उनके ही अशरण भाव का चिन्तन किया जाता है। अनित्यता के समान अशरण भी वस्तु का स्वभाव है।" अनित्य भावना का केन्द्र-बिन्दु है -- "मरना सबको एक दिन अपनी-अपनी बार" और अशरण भावना कहती है-- "मरते न बचावे कोई" -- यही इन दोनों में मूलभूत अन्तर है।12 इसी प्रकार संसार भावना और लोक भावना में आये संसार और लोक -- इन दो शब्दों का अन्तर स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं -- "लोक में संसार शब्द का प्रयोग लोक (जगत दुनियाँ ) के अर्थ में भी होता है, पर संसार भावना के सन्दर्भ में संसार का अर्थ लोक, दुनियाँ, जगत् किसी भी स्थिति में सम्भव नहीं है, क्योंकि बारह भावनाओं में संसार भावना के समान लोक भी एक भावना है। दोनों में बिन्दु और सिन्धु का अन्तर है। संसार बिन्दु है तो लोक सिन्धु है। संसार जीव की विकारी पर्याय मात्र है और लोक छह द्रव्यों के समूह को कहते हैं। लोक मात्र ज्ञेय है, पर संसार हेय भी है। षड्द्रव्यमयी लोक को मात्र जानना है, पर संसार का तो अभाव भी करना है।13 डॉ. भारिल्लजी द्वरा शब्दों की पकड़ के माध्यम से बतलाये गये कुछ अन्य अन्तर भी द्रष्टव्य है -- एकत्व और अन्यत्व -- इन दोनों भावनाओं में विधि और निषेध स्प ही अन्तर है। 4 आसव भावना आसव तत्त्व नहीं संवर तत्त्व है क्योंकि तत्त्वार्यसूत्र में बारह भावनाओं का वर्णन संवर तत्त्व के प्रकरण में आता है। संवर भावना और संवरतत्त्व में कारण-कार्य का सम्बन्ध है क्योंकि उक्त कथन में बारह भावनाओं को संवर के कारणों में गिनाया गया है और संवर भावना भी बारह भावनाओं में एक भावना है।16 संवर मोक्ष-मार्ग का आरम्भ है और निर्जरा मोक्ष-मार्ग।17 बोधिदुर्लभ भावना में बोधि की दुर्लभता अर्थात् रत्नत्रय की दुर्लभता का चिन्तन किया जाता है और धर्म भावना में धर्म अर्थात् रत्नत्रय के स्वरूप एवं महिमा का चिन्तन किया जाता है।18 इस प्रकार डॉ. भारिल्लजी ने अपनी सूक्ष्म/पैनी दृष्टि को छेनी बनाकर विषय-विभाजन करते हुए यह सिद्ध किया है कि बारह भावनाओं में मूलभूत अन्तर वस्तुतः परस्पर चिन्तन प्रक्रिया का ही है। सरल, सुबोध, तर्कसंगत एवं आकर्षक शैली में विषय-वस्तु का प्रतिपादन करना डॉ. भारिल्लजी की अपनी विशेषता है। देह और आत्मा दोनों ऊपर से एक दिखलाई देने पर भी वे Jain Education International For 59 ate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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