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________________ ___ माननीय डॉ. हुकुमचन्द भारिल्ल कृत "बारह भावना : एक अनुशीलन" एक ऐसी ही कृति है, जिसमें शोध-समीकरणों को ध्यान में रखते हुए अब तक रचे गए समस्त बारह भावना साहित्य का सम्यक् अनुशीलन कर अध्यात्म-रसिकों/मुमुक्षुजनों के लिए एक ठोस उपहार प्रस्तुत किया है। प्रारम्भ में डॉ. भारिल्लजी ने "वीतराग विज्ञान" (मासिक, जयपुर) के सम्पादकीय लेखों के स्प में बारह भावनाओं का लेखन प्रारम्भ किया था, किन्तु इसके स्थायी महत्त्व को ध्यान में रखकर कालान्तर में इसे ग्रन्थ का रूप दे दिया, जो महत्त्वपूर्ण है। अनु. पुनः-पुनःप्रेक्षणं चिन्तनं स्मरणम् अनित्यादिस्वस्पाणाम् इति अनुप्रेक्षा निज-निजनामानुसारेण तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा इत्यर्थः । अर्थात् तत्-तत् नाम वाले अनित्यादि स्वरूपों का पुनः-पुनः चिन्तन, स्मरण करना अनुप्रेक्षा है। इसी का दूसरा नाम भावना है। भावना के प्रकरण में तत्त्वों का पुनः-पुनः चिन्तन करना दोष न होकर गुण है। जिस प्रकार माँ-पुत्र को उत्पन्न करती है, उसी प्रकार बारह भावनाएँ वैराग्य को उत्पन्न करने वाली हैं। जिस प्रकार हवा के लगने से अग्नि प्रज्वलित हो उठती है, उसी प्रकार इन बारह भावनाओं के चिन्तन से समता रूपी सुख जागृत होता है। बारह भावनाओं का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लेखक का यह कथन कितना सार्थक/सटीक है कि -- वैराग्यवर्धक बारह भावनाएँ मुक्ति पथ का पाथेय तो है ही, लौकिक जीवन में भी अत्यन्त उपयोगी हैं। इष्ट-वियोग और अनिष्ट-संयोगों से उत्पन्न उदवेगों को शान्त करने वाली ये बारह भावनाएँ व्यक्ति को विपत्तियों में धैर्य एवं सम्पत्तियों में विनम्रता प्रदान करती हैं, ...जीवन के मोह एवं मृत्यु के भय को क्षीण करती हैं, ...जीवन के निर्माण में इनकी उपयोगिता असंदिग्ध है। डॉ. भारिल्लजी ने प्रस्तुत अनुशीलन के प्रथम शीर्षक में अनुप्रेक्षा (भावना सामान्य के महत्त्व आदि का प्रतिपादन किया है। तत्पश्चात् स्वरचित पद्यमय सार्थ प्रत्येक भावना और उसका अनुशीलन। इस प्रकार बारह भालनएँ और बारहों भावनाओं का अनुशीलन ये चौबीस और पूर्वोक्त अनुप्रेक्षा सामान्य को मिलाकर मुख्य रूप से पच्चीस शीर्षकों में यह ग्रन्थ विभाजित हुआ है। बारह भावनाएँ इस प्रकार हैं -- 1. अनित्य (अधुव), 2. अशरण, 3. संसार, 4. एकत्व, 5. अन्यत्व, 6. अशुचि, 7. आसव, 8. संवर, 9. निर्जरा, 10. लोक, 11.बोधिदुर्लभ और 12. धर्म। भावनाओं का यह क्रम आचार्य उमास्वामी एवं स्वामी कार्तिकेय ने स्वीकार किया है और इसी क्रम को डॉ. भारिल्लजी ने भी अपनाया है। आचार्य कुन्दकुन्द का क्रम उपर्युक्त से भिन्न है। इन बारह भावनाओं को डॉ. भारिल्लजी ने मुख्यता और गौणता की अपेक्षा से दो भागों में विभक्त करते हुए लिखा है कि आरम्भ की छह भावनाएँ वैराग्योत्पादक और. अन्त की कह भावनाएँ तत्त्वपरक है। वैराग्योत्पादक तत्त्वपरक चिन्तन ही अनुप्रेक्षा है। आवश्यकता मात्र चिन्तन की नहीं वैराग्योत्पादक चिन्तन की है, तत्त्वपरक चिन्तन की है। आत्मार्थी मुमुक्षुओं के लिए बारह भावनाओं का चिन्तन कभी-कभी का नहीं, प्रतिदिन का कार्य Jain Education International For 57ate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525019
Book TitleSramana 1994 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages78
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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