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________________ प्रो. सांगरमल जैन 152 ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों ( क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शद्र हैं। इनके दो भेद हैं -- कार और अकारु। पुनः कारु के भी दो भेद है -- स्पृश्य और अस्पृश्य है। धोबी, नापित आदि स्पृश्य शुद्र हैं और चण्डाल आदि जो नगर के बाहर रहते हैं वे अस्पर्श्व शूद्र हैं (आदिपुराण 16/184-186 ) । शूद्रों के कार और अकार तथा स्पृश्य एवं अस्पृश्य-- ये भेद सर्वप्रथम केवल पुराणकार जिनसेन किये हैं।22 उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है। किन्तु हिन्दू समाज व्यवस्था से प्रभावित हो बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्रायः मान्य किया। षट्प्रामृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा की हैं। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था, किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र (3/202) के मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुंसक की मुनि दीक्षा का निषेध था, किन्तु परवर्ती टीकाकारों चण्डालादि जाति जुंगित और व्याधादि कर्मजंगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर दिया।24 फिर भी यह सब जैन धर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही था। जातीय अहंकार मिथ्या है जैनधर्म में जातीय मद और कुल मद को निन्दित माना गया है। भगवान महावीर के पूर्व-जीवनों की कथा में यह चर्चा आती है कि मारीचि के भव में उन्होंने अपने कुल का अहंकार किया था,फलतः उन्हें निम्न भिक्षुक कुल अर्थात् ब्राह्मणी माता के गर्भ में आना पड़ा है। आचारांग में वे स्वयं कहते हैं कि यह आत्मा अनेक बार उच्चगोत्र को और अनेक बार नीच गोत्र को प्राप्त हो चुका है। इसलिए वस्तुतः न तो कोई हीन/ नीच है, और न कोई अतिरिक्त/ विशेष/उच्च है। साधक इस तथ्य को जानकर उच्चगोत्र की स्पृहा न करें। उक्त तथ्य को जान लेने पर भला कौन गोत्रवादी होगा ? कौन उच्चगोत्र का अहंकार करेगा ? और कौन किस गोत्र/जाति विशेष में आसक्त चित्त होगा ?25 इसलिये विवेकशील मनुष्य उच्चगोत्र प्राप्त होने पर हर्षित न हों और न नीचगोत्र प्राप्त होने पर कुपित/दुःखी हो। यद्यपि जैनधर्म में उच्चगोत्र एवं निम्नगोत्र की चर्चा उपलब्ध है। किन्तु गोत्र का सम्बन्ध परिवेश के अच्छे या बुरे होने से है। गोत्र का सम्बन्ध जाति अथवा स्पृश्यता-अस्पृश्यता के साथ जोड़ना भ्रान्ति है। जैन कर्म सिद्धान्त के अनुसार देवगति में उच्च गोत्र का उदय होता है और तिर्यंच मात्र में नीच गोत्र का उदय होता है, किन्तु देवयोनि में भी किल्विषिक देव नीच एवं अस्पृश्यवत होते हैं। इसके विपरीत अनेक निम्न गोत्र में उत्पन्न पशु जैसे -- गाय, घोड़ा, हाथी बहुत की सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं। वे अस्पृश्य नहीं माने जाते। अतः उच्चगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी हीन और नीचगोत्र में उत्पन्न व्यक्ति भी उच्च हो सकता है। अतः गोत्रवाद की धारणा को प्रचलित जातिवाद तथा स्पृश्यास्पृश्य की धारणा के साथ नहीं जोड़ना चाहिए। भगवान महावीर ने प्रस्तुत सूत्र में जाति-मद, गोत्र-मद आदि को निरस्त करते हुए यह स्पष्ट कह दिया है कि " जब आत्मा अनेक बार उच्च-नीच गोत्र का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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