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________________ 151 जैनधर्म और सामाजिक समता जैनधर्म में वर्ण एवं जाति व्यवस्था का ऐतिहासिक विकासक्रम मूलतः जैनधर्म वर्णव्यवस्था एवं जातिव्यवस्था के विरुद्ध खड़ा हुआ था, किन्तु कालक्रम में बृहत् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणायें प्रविष्ट हो गई। जैन परम्परा में जाति और वर्ण व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का विवरण सर्वप्रथम आचारांगनियुक्ति (लगभग ईस्वी सन्तीसरी शती) में प्राप्त होता है उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थीं। ऋषभ के द्वारा राज्य-व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये -- 1. शासक ( स्वामी) और 2. शासित (सेवक)। उसके पश्चात् शिल्प और वाणिज्य के विकास के साथ उसके तीन विभाग हुए -- 1. क्षत्रिय (शासक), 2. वैश्य (कृषक एवं व्यवसायी) और 3. शूद्र (सेवक)। उसके पश्चात् श्रावक धर्म की स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण (माहण) कहा गया। इसप्रकार क्रमशः चार वर्ण अस्तित्व में आये। इन चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय तथा अन्तर्वीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगो से सोलहवर्ण बने, जिनमें सातवर्ण और नौ अन्तरवर्ण कहलाए। सात वर्ण में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न और वैश्य पुरुष और शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न ऐसे अनुलोम संयोग से उत्पन्न तीनवर्ण आचागंगचूर्णि ( ईसा की 7वीं शती) में इसे स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जो सन्तान होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही जाती है, यह पाँचवा वर्ण है। इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पन्न सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठा वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से उत्पन्न सन्तान शुद्ध शूद्र या संकरशूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण है। पुनः अनुलोम और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्न नौ अन्तर-वर्ण बने। ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ। क्षत्रिय पुरुष और शूद्रा स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण हुआ। ब्राह्मण पुरुष और शूद्रा स्त्री से 'निषाद नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ। शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ। क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ। शूद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खत्ता) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ। वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वैदेह नामक पन्द्रहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के से 'चाण्डाल नामक सोलहवाँ वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में आयीं।21" उपरोक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैन धर्म के आचार्यों ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू परम्परा की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। लगभग सातवीं सदी में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने लोकापवाद के भय से तथा जैन धर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान बनाये रखने के लिए हिन्दू वर्ण एवं जातिव्यवस्था को इस प्रकार आत्मसात कर लिया कि इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह प्रायः समाप्त हो गया। जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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