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________________ 153 जैनधर्म और सामाजिक समता स्पर्श कर चुका है, कर रहा है तब फिर कौन ऊँचा है ? कौन नीचां ? ऊँच-नीच की भावना मात्र एक अहंकार है, और अहंकार 'मद है। मद नीचगोत्र के बन्धन का मुख्य कारण है। अतः इस गोत्रवाद व मानवाद की भावना से मुक्त होकर जो उनमें तटस्थ रहता है, वही समत्वशील है, वही पण्डित है। मथुरा से प्राप्त अभिलेखों का जब हम अध्ययन करते हैं तो हमें ज्ञात होता है कि न केवल प्राचीन आगमों से अपितु इन अभिलेखों से भी यही फलित होता है कि जैन धर्म ने सदैव ही सामाजिक समता पर बल दिया है और जैनधर्म में प्रवेश का द्वार सभी जातियों के व्यक्तियों के लिये समान रूप से खुला है। मथुरा के जैन अभिलेख इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जैन मन्दिरों के निर्माण और जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा में धनी-निर्धन, ब्राह्मण-शूद्र सभी वर्गों, जातियों एवं वर्गों के लोग समान रूप से भाग लेते थे। मथुरा के अभिलेखों में हम यह पाते हैं कि लोहार, सुनार, गन्धी, केवट, लौहवणिक, नर्तक और यहां तक कि गणिकायें भी जिन मन्दिरों का निर्माण व जिन प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा करवाती थीं।26 ज्ञातव्य है कि मथुरा के इन अभिलेखों में लगभग 60% दानदाता उन जातियों से हैं, जिन्हें सामान्यतया निम्न माना जाता है। स्थूलिभद्र की प्रेयसी कोशा वेश्या द्वारा जैनधर्म अंगीकार करने की कथा तो लोक-विश्रुत है ही। मथुरा के अभिलेखों में भी गणिका नादा द्वारा देव कुलिका की स्थापना भी इसी तथ्य को सूचित करती है कि एक गणिका भी श्राविका के व्रतों को अंगीकार करके उतनी ही आदरणीय बन जाती थी, जितनी कोई राज-महिषी। आवश्यकचूर्णि और तित्थोगाली प्रर्कीणक में वर्णित कोशा वेश्या का कथानक और मथुरा में नादा नामक गणिका द्वारा स्थापित देव कुलिका, आयगपट्ट आदि इस तथ्य के स्पष्ट प्रमाण है। जैन धर्म यह भी मानता है कि कोई दुष्कर्मा व दुराचारी व्यक्ति भी अपने दुष्कर्म का परित्याग करके सदाचार पूर्ण नैतिक-जीवन व व्यवसाय को अपना कर समाज में प्रतिष्ठित बन सकता है। जैन साधना का राजमार्ग तो उसका है जो उस पर चलता है। वर्ण, जाति या वर्ग विशेष का उस पर एकाधिकार नही है। जैन धर्म साधना का उपदेश तो वर्षा ऋतु के जल के समान हो, जो ऊँचे पर्वतों, नीचे खेत-खलिहानों पर, सुन्दर महल व झोपड़ी पर समान रूप से बरसता है। जिस प्रकार बादल बिना भेद-भाव के सर्वत्र जल की वृष्टि करते हैं उसी प्रकार मुनि को भी ऊँच-नीच, धनी-निर्धन का विचार किये वगैर सर्वत्र सन्मार्ग का उपदेश करना चाहिए।28 यह बात भिन्न है कि उसमें से कौन कितना ग्रहण करता है। जैन धर्म में जन्म के आधार पर किसी को निम्न या उच्च नहीं कहा जा सकता, हाँ वह इतना अवश्य मानता है कि अनैतिक आचरण करना अथवा क्रूर कर्म द्वरा अपनी आजीविका अर्जन करना योग्य नहीं है,ऐसे व्यक्ति अवश्य हीन कर्मा कहे गये हैं, किन्तु वे अपने क्रूर एवं अनैतिक कर्मों का परित्याग करके श्रेष्ठ बन सकते हैं। ___ज्ञातव्य है कि आज भी जैन धर्म में और जैन श्रमणों में विभिन्न जातियों के व्यक्ति प्रवेश पाते हैं। मात्र यही नहीं श्रमण जीवन को अंगीकार करने के साथ ही निम्न व्यक्ति भी सभी का उसी प्रकार आदरणीय बन जाता है, जिस प्रकार उच्चकुल या जाति का व्यक्ति। जैनसंघ में उनका स्थान समान होता है। यद्यपि मध्यकाल में हिन्दू परम्परा के प्रभाव से विशेष रूप से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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