SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रो. सागरमल जैन 235 सर्वप्रथम हम अरिहंत या अरहन्त शब्द को ही लें। प्राचीनकाल में यह शब्द जैन परम्परा का विशिष्ट शब्द न होकर भारतीय परम्परा का एक सामान्य शब्द था। अपने मूल अर्थ में यह शब्द पूजा-योग्य अर्थात् पूजनीय या "सम्माननीय" अर्थ का वाचक था और उसके बाद यह शब्द वासनाओं से मुक्त एवं राग-द्वेष के विजेता वितराग व्यक्ति के लिए प्रयोग किया जाने लगा, क्योंकि वह सम्माननीय या पूज्यनीय होता था। प्राचीन जैन एवं बौद्धग्रन्थों में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ, किन्तु जब जैन परम्परा में कर्म-सिद्धान्त का विकास हुआ तो इस शब्द को पुनः एक नया अर्थ मिला और यह कहा गया कि जो व्यक्ति चारघाती कर्मों को अर्थात् ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय को क्षय कर लेता है, वह "अर्हत्" है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षय करने के कारण "अरहन्त" को सर्वज्ञ का पर्यायवाची माना गया। इस प्रकार "अरहन्त" शब्द ने जैन परम्परा में एक अपना विशेष अर्थ प्राप्त किया। कालान्तर में अरिहन्त के (अरि+हंत ) रूप से यह राग-द्वेष रूपी शत्रुओं को मारने वाला और अरुहंत के रूप में जो संसार में पुनः जन्म नहीं लेने वाला माना गया, यह व्याख्या जैन और बौद्ध दोनों में है। अतः आगे चलकर यह अर्थ भी स्थिर नहीं रह सका और जैन परम्परा में अरहन्त शब्द केवल तीर्थंकरों का पर्यायवाची बन गया। यदि हम "सव्वणु" (सर्वज्ञ) और केवली शब्द का इतिहास देखें तो इनके भी अर्थ में कालान्तर में विकास देखा जाता है। प्राचीन स्तर के जैन आगमों जैसे -- सूत्रकृतांग, भगवती आदि में सर्वज्ञ शब्द उस अर्थ का वाचक नहीं था जो उसे बाद में मिला। तत्त्वार्थसूत्र और भाष्य-साहित्य में तथा अन्य ग्रन्थों में "सर्वज्ञ" और "केवली" शब्द सभी द्रव्यों और उनकी पर्यायों के त्रैकालिक ज्ञान के वाचक माने गये हैं, किन्तु सूत्रकृतांग एवं भगवती में सर्वज्ञ और केवली शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुए हैं। वहाँ "सर्वज्ञ" शब्द का अर्थ आत्मज्ञ, आत्मद्रष्टा, आत्मसाक्षी और अधिक से अधिक जीवन और जगत् के सम्यक् स्वरूप का ज्ञाता ही था, इसी प्रकार बौद्धदर्शन में भी प्रारम्भ में सर्वज्ञ का तात्पर्य हेय और उपादेय का विवेक था। दूसरे शब्दों में उस काल तक सर्वज्ञ शब्द आत्मज्ञान एवं दार्शनिक ज्ञान का ही पर्यायवाची था, अन्यथा भगवती में केवली "सिय जाणइ सिय ण जाणइ" ऐसा उल्लेख नहीं होता। इस सम्बन्ध में पंडित सुखलालजी ने पर्याप्त विचार किया है। सर्वज्ञ का पर्यायवाची "केवली" शब्द भी अपने प्राचीन अर्थ को खोकर नवीन अर्थ में सर्वज्ञाताद्रष्टा अर्थात् सभी द्रव्यों की सभी पर्यायों के कालिक ज्ञान का वाचक बन गया, यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि केवली शब्द प्राचीन सांख्य परम्परा से जैन परम्परा में आया और वहाँ वह आत्मद्रष्टा के अर्थ में या प्रकृति-पुरुष के विवेक का ही वाचक था। यही कारण था कि कुन्दकुन्द को यह कहना पड़ा, कि वस्तुतः केवली आत्मा को जानता है, वह लोकालोक को जानता है यह व्यवहार नय या व्यवहार दृष्टि है। पाली त्रिपिटक में सर्वज्ञ का जो मखौल उड़ाया गया है, वह उसके दूसरे अर्थ को लेकर है। यही स्थिति "बुद्ध", "जिन" और "वीर" शब्दों की है। एक समय तक ये जैन, बौद्ध एवं अन्य श्रमण परम्पराओं के सामान्य शब्द थे। प्रारम्भ में इनका अर्थ क्रमशः इन्द्रियविजेता, प्रज्ञावान और कष्टसहिष्णुसाधक था किन्तु आगे चलकर जहाँ जैन परम्परा में "जिन" शब्द और बौद्ध परम्परा में "बुद्ध" शब्द विशिष्ट अर्थ के वाचक बन गये, जैन परम्परा में "जिन" शब्द को मात्र तीर्थंकर का पर्यायवाची और बौद्ध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy