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________________ जैन एवं बौद्ध पारिभाषिक शब्दों के अर्थ निर्धारण और अनुवाद की समस्या - प्रो. सागरमल जैन किसी शब्द के अर्थ का निर्धारण करने या उसे पारिभाषित करने में अनेक कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैं। क्योंकि शब्दों के वाच्यार्थ बदलते रहते हैं। साथ ही उनमें अर्थ संकोच और अर्थ विस्तार भी होता है। यह कठिनाई तब और अधिक समस्याप्रद बन जाती है, जब एक ही परम्परा में कालक्रम में शब्द का अर्थ बदल जाता है। कुछ शब्द कालक्रम में अपने पुराने अर्थ को खोजकर नये अर्थ को ग्रहण करते हैं तो कुछ शब्द एक परम्परा से आकर दूसरी परम्परा में मूल अर्थ से भिन्न किसी अन्य अर्थ में स्ढ़ हो जाता है। आसव शब्द जैन और बौद्ध परम्परा में समान रूप से प्रयुक्त हुआ है, किन्तु उसके अर्थ भिन्न हो गये हैं। जैन और बौद्ध परम्परा के अनेक पारिभाषिक शब्दों के साथ यही स्थिति रही है। कुछ शब्द अन्य परम्परा से जैन परम्परा में आये, किन्तु यहाँ आकर उनका अर्थ बदल गया। पुनः कुछ शब्द जैन एवं बौद्ध परम्परा में भी कालक्रम में अपने पुराने अर्थ को छोड़कर नये-नये अर्थ को ग्रहण करते रहे हैं। प्रस्तुत निबन्ध में हम इन्हीं दो कठिनाइयों के सन्दर्भ में जैन पारिभाषिक शब्दों के अर्थ-निर्धारण की समस्या पर प्रकाश डालने का प्रयत्न करेंगे। शब्द के अर्थ-निर्धारण की समस्या से जैनाचार्य प्राचीन काल से ही परिचित थे, अतः उन्होंने सर्वप्रथम निक्षेप और नय के सिद्धान्तों के सिद्धान्तों का विकास किया, ताकि सन्दर्भ और वक्ता के अभिप्राय के आधार पर शब्द एवं वाक्य के अर्थ का निर्धारण किया जा सके। शब्द के अर्थ निर्धारण में उसके सन्दर्भ का विचार करना यह निक्षेप का कार्य है और वक्ता के अभिप्राय के आधार पर वाक्य का अर्थ समझना यह नय का कार्य माना गया। निक्षेप शब्द के अर्थ का निश्चय करता है और नय वाक्य के अर्थ का निश्चय करता है। शब्दों के अर्थ-निर्धारण एव उनको पारिभाषित करने में एक समस्या यह भी होती है कि ग्रन्थ किसी अन्य देश एवं काल की रचना होता है और उसके व्याख्याकार या टीकाकार किसी अन्य देश और काल के व्यक्ति होते हैं। इसलिए कभी-कभी उनके द्वारा की गई शब्द की परिभाषाएँ अपने मूल अर्थ से भिन्न होती हैं और कभी-कभी भ्रांत भी। जैन परम्परा में कई शब्दों के टीकाकारों के द्वारा किये गये अर्थ अपने मूल अर्थ से भिन्न हैं और कभी-कभी तो ग्रन्थ के हार्द को भी समझने में कठिनाई उत्पन्न करते हैं। यह समस्या भी विशेष रूप से उन ग्रन्थों के सन्दर्भ में है जो पर्याप्त प्राचीन है। ऐसे ग्रन्थों में हम आचारांग, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित और कुछ छेदसूत्रों को ले सकते हैं। यहाँ हम इनके सभी शब्दों के सन्दर्भ में तो विचार नहीं कर सकेंगे, किन्तु कुछ प्रतिनिधि पारिभाषिक शब्दों को लेकर उनके अर्थ-निर्धारण की समस्या पर विचार करेंगे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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