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________________ प्रो. सागरमल जैन 236 परम्परा में बुद्ध को धर्मचक्र प्रवर्तक बुद्ध का वाचक माना गया। "वीर" शब्द जहाँ आचारांग में कष्ट-सहिष्णु साधक या संयमी मुनि का पर्यायवाची था, वहीं आगे चलकर महावीर का पर्यायवाची मान लिया गया। यही स्थिति "तथागत" शब्द की है। आचारांग में "तथागत" शब्द मुख्य रूप से प्रज्ञावान मुनि के लिए प्रयुक्त हुआ किन्तु कालान्तर में जैन परम्परा से यह शब्द लुप्त हो गया और बौद्ध परम्परा का विशिष्ट शब्द बन गया और वहाँ उसे भगवान बुद्ध का पर्यायवाची मान लिया गया। इसी प्रकार यदि "सण" (दर्शन) शब्द को लें तो उसके अर्थ में भी स्वयं जैन परम्परा में ही अर्थ परिवर्तन होता रहा है। प्राचीन जैनागम आचारांग में यह शब्द द्रष्टाभाव या साक्षीभाव के अर्थ में "प्रयुक्त" हुआ, जबकि जैन-ज्ञान मीमांसा में यह शब्द ऐन्द्रिक और मानसिक संवेदनों के रूप में प्रयोग किया गया। आगमों में "जाणई" और "पासई" ऐसे दो शब्दों का प्रयोग मिलता है। वहाँ "पास" या "पासई" शब्द का अर्थ देखना था और वह दंसण का पर्यायवाची था। प्राचीनस्तर के ग्रन्थों में दर्शन या देखने का तात्पर्य जागतिक घटनाओं को समभावपूर्वक देखने से रहा जैसे "एस पासगस्स दंसणं, एस कुसलस्स दसण" किन्तु आगे . चलकर यह शब्द जब जिण-दसण आदि विशेषणों के साथ प्रयुक्त हुआ तो वह "दर्शन" (फिलासोफी) का पर्यायवाची बन गया और उस अर्थ में उसे दृष्टि कहा गया और उसी से सम्यग्दृष्टि एवं मिथ्यादृष्टि शब्द निष्पन्न हुए। पुनः आगे चलकर जैनागमों में ही यह दंसण शब्द श्रद्धान का पर्यायवाची हो गया। आचारांग में "दंसण" शब्द साक्षीभाव के अर्थ में एवं सूत्रकृतांग में दर्शन (फिलासफी) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ। किन्तु उत्तराध्ययन में "णाणेन जाणई भावे दंसणेण सदहे" कहकर दर्शन को श्रद्धान का पर्यायवाची बना दिया गया। जैनकर्म सिद्धान्त में ही दर्शन-मोह और दर्शनावरण इन दोनों शब्दों में प्रयुक्त दर्शन शब्द दो भिन्न अर्थों का वाचक बन गया है। "दर्शनावरण" में रहे हुए "दर्शन" शब्द का तात्पर्य जहाँ ऐन्द्रिक और मानसिक संवेदन है वहाँ "दर्शन मोह" में "दर्शन" शब्द का अर्थ दार्शनिक दृष्टिकोण या दर्शन (फिलासफी) है। सम्प्रदाय भेद से भी जैन परम्परा में शब्दों के अर्थ में भिन्नता आयी हैं। उदाहरण के रूप में "अचेल" शब्द का अर्थ जहाँ श्वेताम्बरों में अल्प-चेल किया तो दिगम्बरों में वस्त्र का अभाव ऐसा किया है। इसी प्रकार "पदगल" शब्द को लें। "पुदगल" शब्द भगवतीसत्र में व्यक्ति (इण्डीविजअल) अथवा व्यक्ति के शरीर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, किन्तु इसके साथ ही साथ उसी ग्रन्थ में "पुद्गल" शब्द भौतिक-पदार्थ के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है। पुद्गलास्तिकाय में प्रयुक्त पुद्गल शब्द जहाँ भौतिक द्रव्य (मैटर) का सूचक है, वहीं भगवती में यह शब्द व्यक्ति एवं शरीर का तथा दशवकालिक में "मांस" का वाचक रहा है। आज जैनसाधुओं की भाषा (कोड-लैंग्वेज) में यह शब्द "धन" या "मुद्रा" का पर्यायवाची है। बौद्ध परम्परा में पुद्गल का अर्थ व्यक्ति/शरीर हुआ है। "आत्मा" शब्द जिसके लिए प्राकृत भाषा में "आता", "अत्ता", "अप्पा", "आदा" और "आया" रूप में प्रयुक्त होता है, किन्तु यह शब्द भी मात्र आत्मा का वाचक नहीं रहा है। भगवतीसूत्र में यह अपनेपन के अर्थ में भी प्रयुक्त हुआ है और कभी यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525018
Book TitleSramana 1994 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1994
Total Pages148
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size8 MB
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