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महोपाध्याय मुनि चन्द्रप्रभसागर
का रास्ता है और समाधानों का समाधान है। ध्यान परम आधार है आत्मा तक पहुँचने के लिये। अध्यात्म के सारे मार्ग ध्यान में आकर विसर्जित हो जाते हैं। ध्यान परमात्मा का सागर है, इसकी एक बूंद भी आत्मक्रांति को घटित कर जायेगी। अपना ध्यान अपने श्वांस-पथ पर आरूढ़ करो और भीतर की गहराइयों में उतर पड़ो। ध्यान में वैसी घड़ी आती है जहाँ हम सारी चंचलताओं को पूरी तरह से शांत पाते हैं। वहाँ निस्तरंग होती है "झील"।
जीवन का यह क्षण अन्तर-प्रसन्नता का महोत्सव है। वहाँ मौन बरसता है, शांति लहराती है, आनन्द जगमगाता है। तब की अनुभूति प्यार ही प्यार से छलाछल होती है। अहिंसा और करुणा इतनी जीवंत हो उठती है कि उसकी छलकाहट भी औरों के लिये सत्संग बन जाती है।
एक बात निश्चित है कि जीवन की यह अनूठी यात्रा अन्दर ही अन्दर होती है, आखिर मोक्ष है भी तो अन्दर ही। ऐसा नहीं कि नरक के ऊपर पृथ्वी ग्रह, इससे ऊपर स्वर्ग और स्वर्ग के ऊपर मोक्ष, जैसा कि मानचित्रों में दिखाया जाता है। भला, मोक्ष का भी कभी कोई नक्शा होता है। स्वर्ग, नरक और मोक्ष सब हमारे ही भीतर हैं। बुरा मन "नरक" है और अच्छा मन "स्वर्ग"। मोक्ष, मन से मुक्ति है, विचारों का निर्वाण है। ध्यान, मार्ग है जो हमें मोक्ष तक ले जायेगा। जीतेजी मोक्ष और "महाशून्य" की अनुभूति करा देना ही ध्यान का सफल प्रयोग है। अन्तर्जीवन की प्रयोगशाला में प्रयोगों को व्यावहारिक रूप दें, चैतन्य की दशा को उजागर करें, यही कामना है।
- महोपाध्याय मुनि चन्द्रप्रभसागर
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