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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
- डॉ. कमल जैन
आचार्य हरिभद्र एक ऐसी जीवन-दृष्टि को लेकर उदित हुये जो अनुपम और अदभुत थी। वे प्रथम मनीषी थे जिन्होंने अपनी असाधारण प्रतिभा द्वारा जैन योग को विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया। उन्होंने परम्परा से चली आ रही प्राचीन शैली को परिस्थिति एवं लोकरुचि के अनुरूप नया मोड़ दे करके, अभिनव परिभाषा करके जैन योग साहित्य के अभिनव युग का प्रारम्भ किया। उन्होंने जैन योग पर अनेक मौलिक ग्रन्थों की रचना की। योग सम्बन्धी अवधारणाओं को नई दिशा दी। भिन्न सम्प्रदायों की संकीर्णता को दूर करने का प्रयत्न किया और समन्वित साधना पद्धति को पल्लवित किया और तदनुरुप संयम व सदाचार गर्भित जीवन चर्या की प्रतिष्ठापना की।
आध्यात्मिक साधना का प्रथम लक्ष्य शारीरिक शक्तियों को ऊर्ध्वगामी बनाकर मोक्ष प्राप्ति की दिशा में नियोजित करना है। योग से ही इन सुप्त शक्तियों को जागृत किया जा सकता है। योग की परिभाषा
मोक्ष प्राप्ति के मुख्य और गौण, अन्तरंग या बहिरंग, ज्ञानपरक या आचारपरक, जितने आध्यात्मिक विकास के साधन हैं, उनका यथाविधि अनुष्ठान करना और आध्यात्मिक विकास की पूर्णता को प्राप्त करना ही योग है।
चितवत्ति का निरोध, पुण्यात्मक प्रवृत्ति मोक्ष से योजन इत्यादि योग के लक्षण भिन्न-भिन्न परम्पराओं में कहे गये हैं। योगियों ने सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चारित्र इन तीनों के आत्मा के साथ सम्बन्ध को योग कहा है। आचार्य हरिभद्र ने योग को मोक्ष का हेतु कहा है और उन सभी साधनों को योग कहा है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्ममल का नाश होता है और आत्मा का मोक्ष के साथ संयोग होता है। आचार्य के विचार में धार्मिक क्रियाकलाप, आध्यात्मिक भावना, समता का विकास, मनोविकारों का क्षय, मन, वचन, कार्य को संयमित करने वाले धार्मिक क्रियाकलाप ही श्रेष्ठ योग हैं, उन्होंने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थों में आत्मा की विशुद्धि के सभी साधनों को योग कहा है।
उपाध्याय अमरमुनि जी ने आत्मा की अनन्तशक्ति को अनावृत करने, आत्म-ज्योति को आलोकित करने तथा अपने लक्ष्य एवं साध्य तक पहुंचने के लिये मन, वचन, कर्म में एकरूपता, एकाग्रता, तन्मयता एवं स्थिरता लाने वाली साधना को योग कहा है। आचार्य हरिभद्र ने योग की 3 अवस्थाओं का उल्लेख किया है --
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