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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
1. इच्छा योग -- आत्मलब्धि के लिये जिसने शास्त्रीय सिद्धान्तों का श्रवण किया है लेकिन प्रमाद के कारण विकल असम्पूर्ण धर्म योग रहता है। इस अवस्था में योगी में योग साधना में आगे बढ़ने की आन्तरिक भावना तो उत्पन्न हो जाती है परन्तु प्रमाद के कारण वह कुछ कर नहीं पाता। 2. शास्त्र योग -- इसमें शास्त्रवेत्ता साधक ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्रात्चार, तपाचार तथा वीर्याचार का शास्त्रीय विधि से पालन करने लगता है। 3. सामर्थ्ययोग -- साधक आत्मशक्ति के विशिष्ट विकास के कारण धर्म और शास्त्र के विधि निषेधों का अतिक्रमण कर आत्मकेन्द्रित हो जाता है, जो उसके मोक्ष का साक्षात् कारण बन जाता है।
आचार्य हरिभद्र कहते हैं कि जिसने अभी धर्म का सच्चा मर्म न जाना हो केवल अभिमुख ही हुआ हो, उसे लोक और समाज के बीच रह कर आचरण करने योग्य धर्म का उपदेश देना चाहिये, जिससे वह लौकिक धर्म का पालन करता हुआ योग मार्ग का अनुसरण कर सके। उसे गुरु, देव, अतिथि आदि की सेवा तथा दीन जनों को दान देने की प्रेरणा देनी चाहिये। उसे सदाचार का पालन, शास्त्रों का पाठ, गुरु से शास्त्र-श्रवण, पवित्र तीर्थस्थानों का पर्यटन आदि शुभ कार्यों में प्रवृत्त होकर आत्म-निरीक्षण करना चाहिये। अशुभ कर्मों के निवारण के लिये आन्तरिक भय होने पर सद्गुरु की शरण लेनी चाहिये, कर्म रोग के उपचार के लिये तप का अनुष्ठान करना चाहिये, मोह रूपी विष को दूर करने के लिये स्वाध्याय का आश्रय लेना चाहिये। आचार्य हरिभद्र ने अर्हतों को शुभ भाव से नमन, सत्पुरुषों की सेवा, संसार के प्रति वैराग्य, सत्पात्र को निर्दोष आहार, उपकरण, औषधि आदि का सब शास्त्रों का लेखन, पूजन, . प्रकाशन, शास्त्र-श्रवण, विधिपूर्वक शुभ उपधान क्रिया इन सबको योग बीज कहा है।११ योगियों के प्रकार
आचार्य ने 4 प्रकार के योगी बताये हैं -- 1. कुल योगी -- जो योगियों के कुल में जन्में हों और प्रकृति से ही योगधर्मी हों, ब्राह्मण, देव, गुरु का सम्मान करते हों, किसी से द्वेष न रखने वाले, दयालु, विनम्र, प्रबुद्ध तथा जितेन्द्रिय हों।१२ 2. गोत्रयोगी१३ -- साधक के गोत्र में जन्म लेने वाले योगी को गोत्र योगी कहा जाता है। यम-नियम आदि का पालन न करने के कारण उनकी प्रवृत्ति संसाराभिमुख होती है। अतः वे योग के अधिकारी नहीं माने जाते। 3. प्रवृत्तचक्रयोगी -- ऐसा योगी अपनी मोक्षाभिलाषा का बढ़ाने वाला, सेवा-सुश्रूषा, श्रवण, धारण, विज्ञान, ईहा, उपोह, तत्त्वाभिनिवेश आदि गुणों से युक्त होकर यत्न-पूर्वक प्रवृत्ति करने वाला होता है।१४
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