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________________ आत्मोपलब्धि की कला : ध्यान तादात्म्य है. इसीलिए तो शरीर को भूख लगने पर कहा जाता है कि मुझे भूख लगी है। उत्तेजना पैदा होती है विचारों में जब कि तुम कहते हो -- "मैं उत्तेजित हूँ।" सम्मोहित हुआ है -- "मन" पर तुम कहते हो कि मैं फिदा हूँ। जो यह समझता है कि मैं मात्र विशुद्ध अस्तित्व हूँ। मन, वचन और शरीर के साथ मेरा मात्र सांयोगिक सम्बन्ध है। उनकी भाषा सिर्फ इतनी ही होगी -- "भूख लगी है।" "मैं उत्तेजित हूँ", ऐसा नहीं मात्र इतना ही कहेगा -- "उत्तेजना है"। जहाँ मैं को जोड़ा वहीं चूक गये। मन से अलग होना कठिन इसलिये है क्योंकि यह हम पहचानते ही नहीं कि हम मन से अलग हैं। हम मन हैं, ऐसा मानना ही तो मन की गुलामी है। मन में चाहे अच्छा आये और बुरा उसका जिम्मा हम पर नहीं है। हम पर केस तो तब चलेगा जब हमारी कृति मन के मुताबिक होगी, जो यह मानता है कि मैं मन नहीं हूँ, मन की बुराइयों का उससे कोई ताल्लुकात नहीं। चूँकि मन में विकार है, इसलिए वह इधर-उधर डोलता है, नींद हो, तब भी वह जोर पकड़ता है। विवेक ही वह मीडिया है, जो मन को रोकता है। अपने विवेक को होश में लाओ और विवेक से उसे अपने से अलग पहचानो। मन के अनुकूल होना भी ठीक नहीं हैं और हठात् उसके खिलाफ जाना भी उचित नहीं है। मार्ग तो "तटस्थता" है। तटस्थ होकर देखो, उसे पहचानो। मन से मुक्त होने के लिए हम इसकी स्थिति को समझें। फ्रॉयड ने मनुष्य की मानसिक प्रक्रियाओं पर लम्बा-चौड़ा विज्ञान उपस्थित किया है। वास्तव में मन की भी तीन परतें हैं -- अचेतन, अवचेतन और चेतन। अचेतन मन, गहरी नींव है। यही तो मनुष्य के जीवन का भाग्य निर्धारित करता है। आक्रामकता की सहज वृत्ति, अचेतन मन के कारण ही निष्पन्न होती है। हमारे समस्त संवेग और अनुभवों का मर्म, यही अचेतन मन है। अवचेतन मन चेतन और अचेतन दोनों के बीच का विशेष प्रदेश है। यह सीमावर्ती प्रदेश है। अवचेतन क्षेत्र में ही तो अचेतन वासनायें घुस आती हैं और नतीजतन सामाजिक जीवन में अवरोधक काट-छांट का सामना करना पड़ता है। चेतना, जगत के साथ सम्पर्क-बिन्दु पर मन की सतही अभिव्यक्ति है। मन, शरीर की सूक्ष्म संहिता है। आत्मा शरीर के हर स्वरूप के पार की स्थिति है। मन से मुक्त होने के लिये या तो मन और विचार को बदल डालो या फिर उन्हें भूल जाओ। मानसिक चंचलताओं को लंगड़ी मारने के लिये मंत्रों का उच्चार करो। गहन उच्चार से मंत्र की लय और छंद में बद्ध होकर विचार सो जाते हैं। जब विचारों से निःस्तब्ध बनोगे तभी पहली बार जानोगे कि मन के साथ कैसा तादात्म्य था। विचारों की तरंगें अब कितनी शांत हैं। मंत्र, मन तक ले जायेंगें। आत्मा तो मन के भी पार है। ध्यान ही वह राजमार्ग है, जो हमें बहिरात्मपन से ऊपर उठाएगा, अन्तरात्मा में अधिष्ठित करेगा और परमात्मा के स्वरूप को साधेगा। ध्यान, हमें उस शून्य तक ले जाता है जहाँ न केवल देहातीत वरन मनोमुक्त दशा होगी। ध्यान योगों का योग है। मंत्रों का मंत्र है। यह रास्तों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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