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________________ महोपाध्याय मुनि चन्द्रप्रभसागर हम अब तक ऐसा ही तो करते चले आये हैं। कुछ देर धर्म कर लेते हैं और कुछ देर बेईमानी। मन्दिर में तो जाकर परमात्मा की पूजा करते हैं और बाजार में आकर मिलावटखोरी। जिस दिन बाजार भी तुम्हारे लिए मन्दिर हो जायेगा परमात्मा का ध्यान उसी समय अपनी सार्थकताओं को छू देगा। कुंदकुंद के साधना की प्रक्रिया में बहिरात्मपन पहली बाधा है। मन, वचन और काया का सम्मोहन ही बहिरात्मपन की आधारशिला है। शरीर स्थूल है। विचार, सूक्ष्म शरीर है। मन, विचारों का कोषागार है। शरीर तो हमें दिखाई पड़ता है पर शरीर के पर्दे के पीछे विचारों की सघन पर्ते हैं। मन की परत शरीर और विचार की पों से अधिक सूक्ष्म है। मन ही तो वह मंत्रणा-कक्ष है जहाँ से विचार, शरीर और संसार की सारी तादात्म्य भरी गतिविधियाँ संचालित होती हैं। इसलिए पहली परत है -- "शरीर"। देहातीत होने का अर्थ वही है कि शरीर के प्रति स्वयं का सम्बन्ध शिथिल कर दो। जो व्यक्ति शरीर के प्रति जितना अधिक आसक्त है, शारीरिक पीड़ाएँ उसे उतनी ही व्यथित करती हैं। भले ही घाव हो, बुखार हो या और कोई वेदना हो यदि देहातीत होकर जीते हो तो तम रोग को जीत जाओगे। हमारे शरीर में कोई फोड़ा हो, फिर भी अगर हम मुस्कुराते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि देह से अलग होने की शक्ति हममें आ गई है। देह भाव को कम करो, तो देह से अलग होना आसान है। योगासनों का महत्त्व देह भाव से ऊपर उठने के लिये ही है। ___ योग में श्वांस-पथ के जरिये देह से विचारों में प्रवेश किया जाता है। प्राणायाम, देह से परास्थिति है। विचार, शरीर से गहरी परत है। विचारों की, संस्कारों की, धारणाओं की कितनी गहरी परतें जमी हैं हमारे भीतर। विचारों की यात्रा अनथक चालू रहती है। दिन हो या रात विचार हमें चौबीस घंटे घेरे रहते हैं। खाओ, पियो, उठो, सोओ, कुछ भी करो, विचारों की परिधि तो हर समय अपना घेरा बांधे रखती है। विचारों की उच्छंखलता समाप्त करने के लिये ही तो नाम-स्मरण और मंत्र-जाप का मूल्य है। क्या हमने कभी ध्यान दिया कि हम विचारों और शब्दों में कितना जीते हैं। शब्द न भी उच्चारो तब भी चुप कहाँ हो। जो चेहरा तुम्हें शांत दिखायी देता है, क्या कभी ज्ञात किया कि उसका मन कितना बड़बड़ा रहा है। विचार तो शांत है नहीं और जाकर बैठे हिमालय में, संस्कार हैं संसार के और आसन है गुफा में, यह कैसा विरोधाभास ? गुफा में जाकर बैठने मात्र से मन की चंचलता बन्द होगी। विचारों को पढ़ने और समझने से विचारों के प्रति आसक्ति टूटेगी। इसलिए कभी अकेले में बैठकर अपने विचारों को ठीक वैसे ही पढ़ने की कोशिश करना, जैसे किसी दूसरे का चरित्र पढ़ा जाता है। शरीर और विचार की अगली सतह है -- "मन"। मन वह है जो अभी तक विचार नहीं बना है। मन, बीज है। विचार, बीज का अंकुरण है। शरीर की गतिविधियाँ तो उसी बीज की फसल है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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