SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 4
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मोपलब्धि की कला : ध्यान शरीर भी साधन है "शरीमाद्यं खलु धर्मसाधनम्" । शरीर धार्मिकता का साधन है। साधन तभी तक सहायक होता है जब तक वह साध्य पर हावी न हो। साधन का साध्य पर चढ़ आना ही पुरुषार्थ का असाध्य रोग है। संसार, सागर है। शरीर नौका है, जीव नाविक है। साधक लोग समझदारी और जागरूकता की पतवारों से पार हो जाते हैं। स्वभाव में जीना ही आत्म-जीवन है। विभाव से स्वभाव में चले आने का नाम ही अध्यात्म-यात्रा है। आत्मा तो जीवन की आजाद हस्ती है। उसकी अनुभूति नितान्त निजी और व्यक्तिगत होती है। खुफिया भी इतनी कि किसी को कानों-कान खबर भी न हो। इसलिए अध्यात्म की प्रयोगशाला में होने वाले आत्मा के अनुभव आत्यन्तिक गोपनीय रहते हैं। विज्ञान के क्षेत्र में जो महत्त्व "प्रयोग" का है, अध्यात्म के क्षेत्र में वही अनुभव का है। विज्ञान के प्रयोग ही अनुभव हैं और अध्यात्म के अनुभव ही दूसरे शब्दों में प्रयोग हैं। विज्ञान का मार्ग अध्यात्म प्रयोग से अनुभव की ओर ले जाता है, जबकि अध्यात्म, अनुभव को ही प्रयोग मानता है। इसलिए अगर आप वैज्ञानिक बुद्धि रखते हैं, तो अध्यात्म के मार्ग पर आपकी बुद्धि बाधा बन जायेगी। बात-बात में शक-शुबह होगा। यहाँ प्रत्यक्ष प्रयोग कम, संकेत ही अधिक मिलेंगे। निजत्व की प्रयोगशाला है ही कुछ ऐसी। __अध्यात्म की डगर पर पाँव अंगड़ाई ले, सौभाग्य की बात है। जहाँ से चल रहे हो अच्छी तरह से पहले आश्वस्त हो लो। कहीं ऐसा न हो कि पाँव बढ़ने के बाद प्रस्थान बिन्दु या पदचिहन याद आये। __संन्यास, आत्मा के प्रति विश्वास है। यह संसार की स्मृति नहीं वरन संसार की विस्मृति है। जिसे संसार की सही समझ पैदा हो गई, वह संन्यास के वातावरण में आकर संसार की याददाश्ती से नहीं गुजरते। संसार का राग, संसार छोड़ने से नहीं वरन समतापूर्वक आने वाली निर्लिप्तता से छूटता है। मुक्ति के दो ही सूत्र हैं -- सर्वप्रथम तो यह प्रतीति हो कि जहाँ हम हैं, वहाँ आग धधक रही है और दूसरा यह कि जिस दिशा में हम छलांग मारना चाहते हैं, वहाँ अमृत की रिमझिम-रिमझिम बरसात है। इसलिए दो चीजों की जरूरत है -- आग और सावन का बोध। आगे कदम वही बढ़ायेगा जो अपनी वर्तमान स्थिति से असंतुष्ट है। अगर हमें लग रहा है कि हमारी शय्या फूलों पर है तो अन्य किसी विकल्प की तलाश हमारा मन स्वीकार ही नहीं करेगा। हम पड़े तो हैं ङाटों की शैय्या पर। हमने काटों को फूल समझ लिया है। यही हमारा अज्ञान है। अज्ञान ही परतन्त्रता और तादात्म्य का सेतु है। सेतु केवल ज्ञान का होता हो, ऐसा नहीं है। अज्ञानता का भी सेतु होता है। ज्ञान का सेतु, उस पार से इस पार लाता है। यह विभाव से स्वभाव की ओर लौटने की यात्रा है। अज्ञान, ज्ञान का अंधापन है। यह ज्ञान का विपर्यय है। अज्ञान इस किनारे से उस किनारे की ओर जाना है। यह स्वभाव से विभाव की यात्रा है। इस किनारे का अर्थ है -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy