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________________ महोपाध्याय मुनि चन्द्रप्रभसागर "ब्रहमविहार" और उस किनारे का अर्थ है -- "लोकविहार"। हमें इस किनारे का, अपने किनारे का स्वामी होना है। जाना कहीं नहीं है। जहाँ-जहाँ गये हैं मात्र वहाँ से लौटना है। तीर्थंकर होने का तात्पर्य यही है कि उस किनारे से इस किनारे पर पहुँच गया। लोगों ने तो अर्थ लगाया है इस पार से उस पार जाने वाला व्यक्ति तीर्थंकर है। उनकी दृष्टि में यह किनारा संसार है और वह किनारा "मुक्ति", जबकि सत्य यह है कि वह किनारा संसार और यह किनारा मुक्ति। इस किनारे से उस किनारे की यात्रा तो अतिक्रमण है। प्रतिक्रमण तो, वापसी की प्रक्रिया है। चित्त का प्रवृत्तियां जहाँ-जहाँ हुई हैं, वहाँ-वहाँ से स्वयं का लौट आना, अन्तर्मन्दिर की तीर्थयात्रा है। आत्मा, हमारी मूल सम्पदा है। वह कहीं और नहीं, कस्तूरी तो कुंडल में ही समायी है। संत कबीर साहब का बड़ा प्रसिद्ध सूक्त है -- "कस्तूरी कुंडल बसै" । हमारी सम्पदा स्वयं हमारे पास है, मूढ़ पुरुष संसार के रेगिस्तान में महक का मारा, दर-दर भटक रहा है। सब कुछ विक्षिप्त और लहूलुहान हुआ चला जा रहा है। इसलिए आत्मा की खोज किसी चीज को तलाशना नहीं है, यह तो स्वयं का स्वयं में होना है। सुख और आनन्द का मूल स्रोत तो अन्तर्जगत् की ही जमनोत्री में है। बाहर के जगत् में सुख के कोरे संवाद मिल सकेंगे, मगर यह मत भूलो कि जिनसे हम सुख के संवाद कर रहे हैं, वे पहले से ही दुःखी हैं। हम अपना दुःख हल्का करने के लिये पड़ोसी के घर जा रहे हैं जबकि पड़ोसी खुद पहले से ही परेशान हैं। यों दुःख हल्का नहीं होता बल्कि सान्त्वना के नाम पर दुःख का विनिमय होता है। हम अपना दुखड़ा रो रहे हैं और पड़ोसी अपना दुखड़ा। हम किसी से तसल्ली पाने के बजाय उस कारण को ढूँढ़ने का प्रयास करें जिससे दुःख पैदा होता है, उस स्थान को तलाशने की चेष्टा करें जहाँ दुःख के काटे लगे हैं। हमारा मन ही तो वह स्थान है, कषाय और राग-वैमनस्य ही तो वे कारण हैं, जिनसे तनाव, घुटन और वैचारिक प्रतिस्पर्धा है। दुःख से ऊपर उठने का पहला मार्ग ही है कि दुःख को भूल जाओ। रोग है तो शरीर को भूल जाओ, तनाव है तो विचारों से ऊपर उठ जाओ, नींद में भी विक्षिप्तता है तो मन से मुक्त हो जाओ। संगीत सुनो, शरीर से विचारों में चले जाओगे। ध्यान करो, विचारों से मन में चले जाओगे। शून्य शांत हो जाओ, मन के भी पार हो जाओगे। आत्मा, मन-वचन और शरीर का अगला चरण है। परमात्मा, आत्मा की ही प्रकाशमान चैतन्य दशा है। कुंदकुंद, जीवन के इस अनूठे विज्ञान से गहरे परिचित थे। आज के सूत्र में वे परमात्मा के ध्यान का प्रतिपादन करेंगे। परमात्मा का ध्यान करने की प्रेरणा देंगे, किन्तु उन्होंने अपने सूत्र में कुछ ऐसे सूत्रों का प्रयोग किया है जिन्हें मैं परमात्म ध्यान की भूमिका कहूँगा। अगर अब तक परम सत्य से साक्षात्कार नहीं हुआ तो इसका अर्थ यह नहीं कि परम सत्य बीत गया है। तुमने सीधी छलांग भरनी चाही जबकि साधना तो इंच-दर-इंच, कदम-दर-कदम बढ़ना है। यह रास्ता इतना फिसलन भरा है कि पाँव जमने कठिन लगते हैं। अपने विवेक के पांवों को मजबूत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
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