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आचार्य हरिभद्र और उनका योग
है, समभाव की सिद्धि के लिये संयम जरूरी है। संयम का अर्थ है पाँच व्रतों की साधना। समता आ जाने पर योगी की वत्ति में एक ऐसा वैशिष्ट्य आ जाता है कि वह प्राप्त ऋद्धियों और विभूतियों का प्रयोग नहीं करता, उसके सूक्ष्म कर्मों का क्षय होने लगता है और उसकी आशाओं तथा आकांक्षाओं के तन्तु टूटने लगते हैं। ४३
आचार्य हरिभद्र कहते हैं जैसे चन्दन अपने को काटने वाली कुल्हाडी को भी सुगन्धित बना देता है वैसे ही जो व्यक्ति विरोधी के प्रति समभावरूपी सुगन्ध फैलाता है, उसी की सामायिक शुद्ध होती है।४४ सामायिक में साधक नवीन कर्मों का बन्ध नहीं करता और आत्मस्वरूप में अव्यवस्थित रहने के कारण जो पूर्व बद्ध कर्म रहे हूये हैं उनकी भी निर्जरा कर देता है। सामायिक की विशुद्ध साधना से जीवघाती कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेता है।१४५ ध्यान -- ध्यान, तप और भावना ये तीनों शक्ति के स्रोत हैं इनके द्वारा वीतरागता उपलब्ध होती है। योग सिद्धि के लिये चंचल इन्द्रियों का निग्रह करके मन में एकाग्रता लाना आवश्यक है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है। वह जितना ही एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है। इसीलिये भारतीय मनीषियों ने ध्यान को सर्वोपरि माना है। राग-द्वेष की प्रवृत्तियां ही मन को अस्थिर करती हैं, इसलिये इन दोनों का निरोध चित्तवृत्ति की स्थिरता के लिये आवश्यक है। मन को केन्द्रित करने के लिये मनीषियों ने ध्यान का विधान किया है। योगी ध्यान की साधना द्वारा चित्त को एकाग्र कर, चेतना की असीम गहराइयों में उतरता हुआ आध्यात्मिक-सत्य का अनुसंधान करता है। शुभ प्रतीकों का . आलम्बन, उन पर चित्त के स्थिरीकरण को ज्ञानी जनों के द्वारा ध्यान कहा गया है।146
तत्त्वार्थ सूत्र में एकाग्रचिन्तन एवं मन, वचन, काया के योगों के निरोध को ध्यान कहा गया है।१४६ उतराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि एक आलम्बन पर मन को स्थिर करने से चित्त का निरोध होता है।४७ आचार्य हरिभद्र के अनुसार ध्यान से आत्म- नियंत्रण, अक्षुण्ण प्रभावशीलता, मानसिक स्थिरता तथा भव परम्परा का उच्छेद होता है।४८ ध्रुव स्मति ही एकाग्रता एवं ध्यान है। जब एक ही वस्तु पर स्मृति निरन्तर स्थिर रहती है, तो वह एकाग्रता बन जाती है। चेतना की यह निरन्तरता या एकाग्रता ही ध्यान है। ध्यान की प्राप्ति के लिये चार भावनाओं (ज्ञान-भावना, दर्शन-भावना, चारित्र-भावना और वैराग्य-भावना) का अभ्यास आवश्यक है।४६ ध्यान करने का अर्थ केवल श्वास- प्रेक्षा या शरीर- प्रेक्षा ही नहीं है। ध्यान आलम्बनों के सहारे राग-द्वेष मुक्त क्षण में जीना है। ध्यान की सिद्धि के लिये चार बातें आवश्यक मानी गई हैं -- सद्गुरु का उपदेश, श्रद्धा, निरन्तर अभ्यास और स्थिर मन ।
ध्यान चित्त की एकाग्रता है और अष्टांग योग के सभी अंगों में महत्त्वपूर्ण है। ध्यान से कर्मों का क्षय शीघ्रता से होता है। ध्यान से निष्पन्न होने वाली एकाग्रता से आध्यात्मिक विकास में अभूतपूर्व प्रगति होती है।१५० ध्यान के चार भेद कहे गये हैं१५१ -- 1. आतध्यान -- चेतना की प्रिय या वेदनामय एकाग्र परिणति को आर्तध्यान कहा गया है। For Private Personal Use Only
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