SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डॉ. कमल जैन भावना अनप्रेक्षा -- योग साधना में प्रवृत्त होने वाले साधक के लिये भावना का महत्त्व सबसे अधिक है मैत्री, करुणा माध्यस्थ, प्रमोद आदि 4 भावनाओं का उपदेश देकर निवृत्ति एवं प्रवृत्ति धर्म का समन्वय करने के लिये भूमिका स्थापित की गई है। बहिर्भाव से अन्तर्भाव में रमण करना अनुप्रेक्षा है। साधक की इन्द्रियाँ तथा मन साधक को सर्वदा अपने मार्ग से विचलित करते हैं एवं उसके राग-द्वेषादि में वृद्धि करते हैं। इन चंचल प्रवृत्तियों को नियंत्रित करने के लिये जो चिन्तन किया जाता है उसे भावना कहा जाता है। जैन परम्परा में भावना के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुये कहा गया है कि दान, शील, तप, भावना ही धर्म है। इनसे संसार-भ्रमण की समाप्ति की जा सकती है।१३२ बन्धुत्व -- मैत्री भावना का सतत् प्रयास करने से साधक के मन में पवित्र भावों का उदय होता है। पवित्र भाव स्पी जल से साधक की द्वेष रूपी अग्नि शान्त हो जाती है।१३३ बन्धुत्व की भावना से योगी का मन निष्कंप बन जाता है। योगी अपनी वेदना, रोग एवं दुःख-दर्द को भूल जाता है। जब वह अनित्यता का चिन्तन करता है, उससे वैराग्य भाव पैदा होता है और समस्त चंचल मनोवृत्तियां और बहुविध मनोकामनायें विलीन होने लगती हैं। इसी प्रकार प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भाव, गुणी जनों के प्रति प्रमोद भाव, दुखियों के प्रति करुणा का भाव, विरोधियों के प्रति माध्यस्थ ( उपेक्षा) भावना२४ साधक की साधना को आगे बढ़ाती है। आचार्य कहते हैं कि द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि में प्रतिबन्ध रहित सभी जीवों पर जो मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भावना रखते हैं वे दृढ़ निश्चय वाले मोक्ष मार्ग की आराधना करने वाले होते हैं। मानसिक भावना की श्रेष्ठता को महत्त्व दिया गया है।१३५ इस संसार से मुक्त होने के लिये भावना आवश्यक है।१३६ विमल विचारों के पुनः- पुनः चित्त में आते रहने से संस्कार सुदृढ़ होते हैं। सतत् भावना ही ध्यान का रूप ग्रहण करती है। भावना दो प्रकार की है-- 1. ऊर्ध्वमुखी ( शुभ भावना) और 2. अधोमुखी (अशुभ भावना )। अशुभ भावना चारित्र को दूषित करती है। इसके कारण जीव अनादि काल से इस संसार में भ्रमण कर रहा है। शुभ भावना साधक को अध्यात्म एवं मुक्ति की दिशा में आगे बढ़ने में सहायता देती है।३७ सामायिक सामायिक का अर्थ है समस्त सावध (पापकारी) प्रवृत्तियों का विसर्जन। पापों का अपनयन ही समत्व का चरम शिखर है१३८ । समत्व से साधना का प्रारम्भ होता है। पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना को केवल अविद्या का प्रभाव समझ कर उनके प्रति उपेक्षा धारण करना समता है। समत्व की साधना से कषायों के बन्धन ढीले होते हैं, वीतरागभाव प्रकट होता है। सर्वज्ञों ने सामायिक को मोक्ष का अंग कहा है।१३६ सामायिक से अन्य साधना में चित्त कुछ समय के लिये ही कल्याणकारी होता है, लेकिन सामायिक में तो चित्त पूर्ण शुद्ध होने से सदैव कल्याणकारी होता है।४० मन, वचन एवं काया तीनों योगों के शुद्ध रूप होने से सर्वथा पाप रहित हैं।141 ज्ञान, तप, चारित्र के होने से ही सामायिक की विशुद्धि होती है, सामायिक केवलज्ञान प्राप्ति का साधन है।१४२ वीतरागभाव की सिद्धि के लिये समभाव की साधना जरूरी Jain Education International For Privatos Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525013
Book TitleSramana 1993 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1993
Total Pages66
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy