SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ डॉ. जगदीशचन्द्र जैन विविधता और समृद्धता से ओत-प्रोत हैं कि उन्होंने भारत के प्रागैतिहासिक समाज को असाधारण रूप में प्रभावित किया। उनकी कितनी ही कथा-कहानियां, उनके विश्वास, प्रतीतियां और कथानकों में अन्तर्भूत कथानक-रुढ़ियां एवं अनबूझ पहेलियां आदि द्वारा उत्तरकालीन साहित्य खूब ही समृद्ध बना। उदाहरण के लिए, आकाश में उड़ना, जड़ी-बूटियों से परिवेष्ठित किसी पर्वत-खण्ड को उठाकर लाना, बहते हुए जल अथवा जलते हुए अंगारों पर चलना, विष-भक्षण से अप्रभावित रहना, कथा के नायक का सदैव अमर बने रहना, मृतक का जीवित हो जाना, मंत्रशक्ति के प्रयोग से रोग का निवारण, दिव्य शक्ति द्वारा राजपद के योग्य व्यक्ति का चुनाव, पक्षियों के सहारे आकाश में उड़कर रत्नों के द्वीप में पहुंचना, शुक, हंस, कपोत अथवा मेघ द्वारा प्रेम का सन्देश प्रेषित करना, गीदड़, कौआ, छिपकली, शुक, गर्दभ, मेढ़ा, मछली आदि का शब्द सुनकर शकुन-अपशकुन का विचार करना आदि कितनी ही कथानक-रूढ़ियों के प्रकार इन कबीलों की कहानियों एवं पहेलियों में पाये जाते हैं जो प्रागैतिहासज्ञों एवं समाजशास्त्रियों के अध्ययन की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं और जिनका अध्ययन कर हम तत्कालीन सामाजिक मूल्यों एवं परंपराओं का बोध प्राप्त करने में सक्षम होते हैं। लोक-आख्यानों में सन्निहित ये कथानक-रुढ़ियां भले ही देखने और सुनने में असम्भव एवं अतिशयोक्तिपूर्ण जान पड़ती हों, पर वस्तुतः ऐसी बात नहीं। इस प्रकार के लोक-आख्यान अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के आख्यानों में उपलब्ध होते हैं जो मानव के आपसी भाई-चारे की ओर इंगित करते हैं। यातुविद्या (जादू की विद्या) का उल्लेख ऋग्वेद में आता है जिसका प्रयोजन झूठ-मूठ असत्य अथवा भ्रांत वातावरण तैयार करना कदापि नहीं। यह विद्या प्रागैतिहासिककालीन समाज के उस दृष्टिकोण की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करती है जिससे पता लगता है कि आदिमकाल से ही मानव सदैव बुद्धिशाली एवं प्रगतिशील रहा है। इससे ज्ञात होता है कि उपयुक्त संसाधनों का अभाव होने पर भी, मानव अपने बुद्धि-कौशल और अपनी कल्पना-शक्ति के प्रयोग द्वारा, वास्तविक घटनाओं पर नियंत्रण न होने पर भी, नियंत्रण होने का भ्रम पैदा कर, अपने कार्य में सफलता प्राप्त करने में सक्षम होता है। यातुविद्या को एक प्रकार की "भ्रामक कला" कहा जा सकता है जो मनुष्य की वास्तविक कला-सम्बन्धी निर्बलताओं से जुड़ी हुई है। इस प्रकार के अतिशयोक्तिपूर्ण कहे जाने वाले लोक-आख्यान वस्तुतः मानव की कुंठा को अभिव्यक्त करते हैं तथा ये समाज द्वारा लादे हुए प्रतिबन्धों से पलायन करने में एक काल्पनिक साधन का काम करते हैं। (विलियम आर. बैस्कोम, द स्टडी आफ फोकलोर) अपने कथन के समर्थन में प्राचीन जैन ग्रंथों के आधार से यहां कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये जाते हैं :1. जैन परम्परा के अनुसार, ऋषभदेव प्रथम राजा, प्रथम जिन, प्रथम केवली, प्रथम तीर्थंकर और प्रथम धर्मचक्रवर्ती हो गये हैं। उनके पूर्व न कोई राज्य था, न राजा न दण्ड और न दण्ड-विधाता। सभी प्रजाजन अपने-अपने धर्म का पालन करते हुए सदाचारपूर्वक आनन्द का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy