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________________ 16 श्रमण, अक्टूबर-दिसम्बर, १८ जीवन व्यतीत किया करते थे। किसी प्रकार का वैमनस्य अथवा विद्वेष भाव उनमें नहीं व अतएव आपसी कलह न होने के कारण किसी प्रकार के दण्ड की व्यवस्था न थी। कल्पवृध द्वारा उन्हें सभी प्रकार का इहलौकिक सुख प्राप्त था। लेकिन कालान्तर में जब कल्पवृक्षों का प्रभाव घटने लगा और सन्तान को लेकर पारस्परिक कलह में वृद्धि होने लगी तो पहली बार दण्ड-व्यवस्था का विधान आरम्भ हुआ (जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति 2, आवश्यकचर्णी 553 )। महाभारत (शांतिपर्व 50 ) में भी इसी प्रकार का आख्यान वर्णित है। यहां पृथु को सर्वप्रथम राजा घोषित किया गया है। इस प्रकार के लोक-आख्यान आदिवासी जातियों में बहुत पहले से प्रचलित थे। संथाली लोक-कथाओं में कहा गया है कि आरम्भ में इस प्रकार का चावल पैदा होता था जिसका छिलका उतारने की आवश्यता नहीं थी तथा कपास के पौधों पर बने-बनाये तैयार कपड़े लो रहते थे, कपास ओटकर उसकी रूई आदि बनाकर कपड़ा बुनने की जरुरत नहीं थी। लेकिन कालान्तर में किसी कन्या के दुर्व्यवहार के कारण चावल और वस्त्र की अनायास प्राप्ति बन्द हो गयी, कारण कि यह दुर्व्यवहार ठाकुर बाबा को पसन्द न आया। 2. कल्पवृक्षों का प्रभाव कम हो जाने पर, प्रथम राजा ऋषमदेव ने प्रजा को शिक्षा दी :-हे लोग वनस्पति को हाथ से मलकर, उसका छिलका उतारकर भक्षण करें। वनस्पति को सुपाच्च बनाने के लिए, छिलका उतार, उसे पत्तों के बने दोने में पानी में भिगो दें और फिर उसे हाथ या बाँहों की गर्मी में रखकर गरमा लें। तत्पश्चात् जब वृक्षों के संघर्ष से लोगों ने अग्नि पैदा होते हुए देखी तो वे फिर अपने राजा के पास पहुंचे। उन्हें आदेश प्राप्त हुआ कि अग्नि में पचन, प्रकाशन और दहन की शक्ति मौजूद है, उसका उपयोग किया जाये। उन्हें आदेश मिला कि वे लोग मिट्टी के बर्तन तैयार करें और उनमें वनस्पति रख, उसमें पानी डाल, उसे आग पर पकाकर खायें, इससे शरीर स्वस्थ रहेगा। (देखिए, संघदासगणि वाचक, वसुदेवहि, पृ. 162, पंक्ति 30 से 163, पंक्ति 6, आवश्यकचर्णी 154 आदि)। अन्न को शरीर की गर्मी से पकाने का रिवाज बहुत पुराना है जो कोटा आदिवासी जाति में पाया जाता है ( देखिए एमेन्यू स्टडीज इन फोकटेल्स ऑफ इंडिया, जनरल ऑफ अमरीकन ओरिंटियल सोसायटी, 67 )। । इससे यही सिद्ध होता है कि इस प्रकार की कितनी ही ऐसी वस्तुएँ हैं जो भारत में रहने वाली आदिमवासी जनजातियों में प्रचलित थीं और हमने उन्हें ग्रहण कर अपनी संस्कृति का एक प्रमुख अंग बना लिया। इस दृष्टि से सचमुच हम इन आदिमवासियों के कितने ऋणी हैं। प्रागैतिहासिक भारतीय समाज को लेकर अनेक प्रश्न उपस्थित होते हैं : जब आदिमवासी जातियां अपने कबीलों में रहती थीं तो जाति प्रथा कहां से आ गयी ? यज्ञ-यागों में पशुओं की बलि क्यों दी जाती थी ? और इस. प्रथा का अन्त करने में कौन से प्रमुख कारण रहे । पाषाण-पूजा कहाँ से प्रवेश कर गयी ? नारियल का महत्व क्यों बढ़ गया ? सिन्दूर को क्यों महत्व दिया जाने लगा ? जब सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वरुण, पर्जन्य आदि प्राकृतिक दिव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525012
Book TitleSramana 1992 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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