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श्रमण, जुलाई-सितम्बर, १६२
जैन-धर्म भाग्य की अपेक्षा पुरुषार्थ या कर्म को प्रधानता देता है। इस दृष्टि से भी सराहनीय है। आज का मानव भाग्यवादी न होकर पुरुषार्थवादी है, जिसके फलस्वरूप चन्द्रमा तक पहुंच चुका है। जैनधर्म कर्मवादी होने के कारण ही ईश्वर जैसी किसी सत्ता विश्वास नहीं करता, जो प्राणियों से अच्छे व बुरे कर्मों को सम्पन्न कराता है। मनुष्य स्थ अपने पाप और पुण्य के लिये उत्तरदायी है, वह स्वयं अपना भाग्य-विधाता है। भाग्य से ईश्वरीय सत्ता की कल्पना हमारे अन्दर अकर्मण्यता की भावना को प्रोत्साहित करती है।
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