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________________ वैदिक साहित्य में जैन परम्परा - प्रो. दयानन्द भार्गव वैदिक साहित्य में श्रमण परम्परा ढूंढने के अनेक प्रयत्न हुए हैं। उन प्रयत्नों में ऋग्वेद या यजुर्वेद जैसे प्राचीन साहित्य में ऋषभदेव या अरिष्टनेमि जैसे नामों की उपलब्धि के आधार पर जैन धर्म की प्राचीनता मिद्धकरने का प्रयत्न किया गया है अथवा वैदिक साहित्य की मुख्य धारा से हट कर जहां कहीं विद्रोह का स्वर मिला उसे श्रमण परम्परा का प्रभाव मान लिया गया है। उदाहरणतः व्रात्य लोगों को श्रमणों का प्रतिनिधि मान लिया गया क्योंकि व्रात्य आर्यों की मूल संस्कृति से हटकर आचरण करते थे। जहाँ निवृत्ति-धर्मपरक बात आई उसे भी श्रमण स्कृिति का सूचक मान लिया गया। हम प्रस्तुत निबन्ध में अपने पूर्ववर्ती विद्वानों से हट कर यह दिखलाने का प्रयत्न करेगें कि श्रमण परम्परा के जिन मूल्यों को वैदिक साहित्य में स्थान मिला उन्हें वैदिक समाज ने यथावत् ग्रहण नहीं किया, बल्कि अपनी तरह से ढाल कर आत्मसात किया। यदि ऊपरी समानता के आधार पर ही हम यह मान लें कि वैदिक साहित्य के अमुक प्रसंगों में श्रमण परम्परा प्रतिफलित होती है तो भारतीय संस्कृति की हमारी समझ अपूर्ण ही रह जायेगी। यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक होगा कि श्रमण परम्परा की दो धाराओं जैन और बौद्धों को एकार्थक नहीं मान लिया जाना चाहिये। प्रस्तुत निबन्ध में हम वैदिक साहित्य में केवल जैन परम्परा के प्रभाव की छाया ढूँढ़ने का प्रयत्न करेंगे। श्रमण परम्परा जैन परम्परा का पर्यायवाची नहीं है। उदाहरणतः अनेकान्त का प्रसंग लें तो पता चलेगा कि जैनों के इस सिद्धान्त का खंडन केवल शंकर जैसे वैदिक परम्परा के व्यक्ति ने ही नहीं किया अपितु शान्तरक्षित जैसे श्रमण परम्परा के बौद्ध आचार्य ने भी किया। इसके विपरीत पूर्व मीमांसक वैदिक परम्परा के होकर भी अनेकान्त के समर्थक रहे। अतः वैदिक बनाम श्रमण की नारा बहुत सुविचारित नहीं है। वैदिक साहित्य में विचारों का विकास हुआ और हजारों वर्ष के चिन्तन के अनन्तर एक व्यापक संस्कृति का निर्माण हुआ। इस व्यापक संस्कृति के निर्माण में श्रमण परम्परा भी अपना योगदान देती रही। इस योगदान की आदान-प्रदान के रूप में द्विविध प्रक्रिया चली। उस प्रक्रिया के तन्तु इतने सूक्ष्म थे कि उसके फलस्वरूप जिस सामासिक संस्कृति का निर्माण हुआ उसमें श्रमण और वैदिक को पृथक्-पृथक् कर पाना आज कठिन है। शंकराचार्य के मायावाद पर बौद्ध दर्शन के शून्यवाद का प्रभाव ढूँढ़ने वाले विद्धन जहाँ शंकराचार्य के दादा गुरु गौड़पाद की माण्डूक्य-कारिका में बौद्ध दार्शनिक नागार्जुन की कारिकाओं की छाया देखने का प्रयत्न करेगें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.525011
Book TitleSramana 1992 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAshok Kumar Singh
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year1992
Total Pages82
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size4 MB
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