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अत्याचारों से बचाया है, प्रत्युत उन्हें उनकी खोई हुई गरिमा वापस दिलाकर, उन्हें सम्मानपूर्ण एवं स्वावलम्बी जीवन जीना सिखाया है। अतः निःसन्दिग्ध रूप से भिक्षुणी संघ जैसी व्यवस्था वर्तमान सन्दर्भ में आवश्यक प्रतीत होती है।
जैन-दर्शन द्वारा प्रदत्त अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त न केवल इस दर्शन की उदारता एवं सूझ-बूझ को दर्शाते हैं, अपितु ये वर्तमान सामाजिक सन्दर्भ में भी उपादेय सिद्ध हो सकते हैं, क्योंकि यह सिद्धान्त वैचारिक सहिष्णुता का प्रतिपादन करता है। आज हमारे समाज में व्याप्त साम्प्रदायिकता, धर्मान्धता, वर्गवाद, जातिवाद, राजनैतिक असहिष्णुता ने सम्पूर्ण विश्व को तनाव में डालकर विक्षुब्ध कर रखा है, मात्र इतना ही नहीं, प्रत्युत् सामाजिक मूल्यों के अवमूल्यन एवं सामाजिक और पारिवारिक जीवन को विषाक्त बनाने का श्रेय भी वैचारिक असहिष्णुता को ही जाता है।
वैचारिक असहिष्णुता से आशय है -- मात्र अपने ही विचारों की सत्यता पर आग्रह अर्थात् यह मानना कि मेरा ही विचार अथवा ज्ञान सत्य है, अन्य का नहीं। इस प्रकार के मिथ्या आग्रह से ही विवाद एवं संघर्ष का जन्म होता है, जो सामाजिक विषाद, विग्रह एवं वैमनस्य का कारण बनता है। सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा और दूसरे मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं और लोक को सत्य से भटकाते हैं, वे एकान्तवादी स्वयं संसार चक्र में भटकते रहते हैं। अनेकान्तवाद का सिद्धान्त हमें वैचारिक सहिष्णुता की दृष्टि प्रदान करके हमें दूसरे के विचारों का सम्मान करना सिखाता है, हमें इस बोध से अवगत कराता है कि सत्य हमारी निजी सम्पत्ति नहीं, प्रत्युत् यह दूसरों के पास भी हो सकता है। जैन-दर्शन के अनुसार सत्य के अनेक पक्ष हैं (अनन्तधर्मात्मकं वस्तुः )
और आग्रह या वैचारिक असहिष्णुता सत्य के बाधक तत्त्व है। आग्रह राग का पर्याय है, जिसकी उपस्थिति में सत्य का दर्शन असम्भव है। के धार्मिक असहिष्णुता जिसके फलस्वरूप न केवल हमारे देश का वातावरण विषाक्त होता जा रहा है, अपितु विदेशों में भी धर्म के नाम पर होने वाले जघन्य दुष्कृत्य मानवता को शर्मिन्दा करते हैं। वैचारिक सहिष्णुता के फलस्वरूप ही धार्मिक संवाद (Religious Dialogue ) सम्भव है, जिसके द्वारा धार्मिक सद्भाव का वातावरण तैयार किया जा सकता है, जिसकी वर्तमान समय को महती आवश्यकता है। धार्मिक दृष्टि से वैचारिक सहिष्णुता या धार्मिक-संवाद का आशय सभी धर्मों का किसी एक धर्म में विलय करके, उनके स्वतन्त्र अस्तित्व को समाप्त करना या उनमें निहित मात्र एकता को ही दूढ़ना नहीं है, अपितु उनको उनके स्वतन्त्र अस्तित्व में देखना, उनके भेदों या विशिष्टताओं को उस धर्म या सम्प्रदाय के व्यक्तियों की दृष्टि से देखना और उसमें निहित सत्यता को स्वीकार करना है। वैचारिक सहिष्णुता से न केवल धार्मिक क्षेत्र में प्रत्युत राजनैतिक, सामाजिक, पारिवारिक आदि सभी क्षेत्रों में सहिष्णुता की स्थापना कर तज्जन्य संघर्षों एवं विद्वेषों से बचा जा सकता है।
१. सयं सयं पसंसता गरहंता परं वयं । जेउतत्य विउस्सन्ति:
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