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गुणस्थान सिद्धान्त का उद्भव एवं विकास
केवली का कोई उल्लेख नहीं है। गुणस्थान सिद्धान्त में जो उपशम श्रेणी और क्षायिक श्रेणी की दृष्टि से अलग-अलग चर्चा की जाती है उसका इस अवधारणा में अभाव है। वस्तुतः इस अवधारणा में उपशम और क्षायिक श्रेणियों को अलग-अलग न करके यह माना गया कि उपशम के बाद ही क्षायिक भाव उत्पन्न होता है। सम्यक्त्व-उत्पत्ति, श्रावक और विरत ये तीनों अवस्थाएँ औपशमिक सम्यक् दर्शन और व्यवहार चारित्र की सूचक हैं। एक दृष्टि से हम इन्हें दर्शनमोह उपशमक और दर्शनमोह उपशान्त की अवस्था कह सकते हैं । अनन्त. वियोजक और दर्शनमोह क्षपक को हम क्षायिक सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति और दर्शनमोह के क्षीण होने की अवस्था कह सकते हैं । आगे जो चार अवस्थाएँ कही गयी हैं वे चारित्र मोह की दृष्टि से हैं । कषाय-उपशमक, कषाय-उपशांत, कषाय-क्षपक और क्षीण कषाय या क्षीणमोह । इन चारों अवस्थाओं का सम्बन्ध अनन्तानुबंधी को छोड़कर कषायचतुष्क की अप्रत्याख्यानी, प्रत्याख्यानी और संज्वलन चौकड़ी को और नोकषायों का पहले उपशम फिर क्षय करने से है । इन अवस्थाओं में उपशमक और उपशान्त क्षपक और क्षीण--इनका स्पष्ट और अलग-अलग उल्लेख होने से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि यह अवधारणा उपशम और क्षायिक को अलग-अलग न मानकर उपशम के पश्चात् क्षायिक श्रेणी से विकास की चर्चा करती है। इस समग्र चर्चा का निष्कर्ष यह है कि गुणस्थान सिद्धान्त की अवधारणा इन दस अवस्थाओं का ही एक विकसित रूप है। इन दस अवस्थाओं को हम गुणस्थान सिद्धान्त के बीज की संज्ञा दे सकते हैं। इन अवस्थाओं को श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में गुणश्रेणी के नाम से जाना जाता है। यहाँ गुण शब्द का प्रयोग सामान्यतया कर्म वर्गणा के पुद्गलों के लिए हुआ है। मेरी दृष्टि में इसी गुणश्रेणी से ही गुण सिद्धान्त का विकास हुआ है। ___ आध्यात्मिक विकास या गुणश्रेणियों की इन दश अवस्थाओं की चर्चा का प्राचीनतम उपलब्ध आधार आचारांग नियुक्ति को मानने पर यह शंका उपस्थित होती है कि नियुक्तियाँ तो द्वितीय भद्रबाहु (वराहमिहिर के भाई) की रचनायें हैं । उनका काल विद्वान् लोग ईसा की पांचवीं शताब्दी मानते हैं। जबकि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र को
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