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श्रमण, अप्रैल-जून १९९२ आचाराङ्ग नियुक्ति में जिस स्थल पर ये गाथाएँ हैं, उन्हें देखते हुए ऐसा लगता है कि ये गाथाएँ मूलतः नियुक्तिकार की नहीं हैं अपितु पूर्व साहित्य के किसी कर्म सिद्धान्त सम्बन्धी ग्रन्थ से इन गाथाओं को इसमें अवतरित किया गया है क्योंकि सम्यक्त्व-पराक्रम की चर्चा के प्रसंग में ये गाथाएँ बहत अधिक प्रासङ्गिक नहीं लगती हैं। फिर भी गणश्रेणी की अवधारणा का अभी तक जो भी प्राचीनतम स्रोत उपलब्ध है, वह तो यही है। इन दोनों गाथाओं में कर्म-निर्जरा की क्रमिक अधिकता की दृष्टि से निम्न दस अवस्थाओं का चित्रण हुआ है--
१. सम्यक्त्वोत्पत्ति, २. श्रावक, ३. विरत, ४. अनन्तवियोजक (अगंतकम्मसे), ५. दर्शनमोहक्षपक, ६. उपशमक, ७ उपशान्त, 4. क्षपक, ९ क्षीण मोह और १०. जिन ।
इन दश अवस्थाओं का गुणस्थान सिद्धान्त से किस रूप में सम्बन्ध है और कितनी समानता और विभिन्नता है इसकी विस्तृत चर्चा तो हम पूर्व निबन्ध में कर चुके हैं फिर भी तुलनात्मक दृष्टि से इस संबन्ध में संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया जा रहा है। गुणस्थान सिद्धान्त की १४ अवस्थाओं में से मिथ्या दृष्टि, सास्वादन और मिश्र या सम्यक् मिथ्या दृष्टि-इन तीन अवस्थाओं की चर्चा इसमें नहीं है। इसकी प्रथम सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक अवस्था गुणस्थान सिद्धान्त के औपशमिक सम्यक् दृष्टि के समान है। इसी प्रकार दूसरी और तीसरी श्रावक और विरत अवस्था गुणस्थान सिद्धान्त के पाँचवें देशव्रत और छठे प्रमत्त संयत गुणस्थान के समान हैं। अनन्तवियोजक को सातवें अप्रमत संयत गुणस्थान से तलनीय माना जा सकता है क्योंकि इस अवस्था में क्षायिक सम्यक् दृष्टि की प्राप्ति के लिए साधक यथाप्रवृत्तिकरण आदि तीन करण करता है। किन्तु इसकी पाँचवीं अवस्था दर्शनमोहक्षपक की तुलना अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान करण से नहीं की जा सकती। इसकी कषाय उपशम और उपशांतकषाय अवस्थाओं को दसवें और ग्यारहवें गुणस्थान से तुलनीय माना जा सकता है। अगली दो अवस्थाएँ क्षपक और क्षीण मोह में क्षपक का गुणस्थान सिद्धान्त में कोई उल्लेख नहीं मिलता है यद्यपि क्षीणमोह बारहवें क्षीणमोह गूणस्थान के समान ही है। जिन अवस्था को हम सयोगी केवली की अवस्था कह सकते हैं किन्तु इसमें अयोगी
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